राष्ट्रीय दल में स्थान पाना ओडिशा के खिलाड़ियों के लिए, ख़ासकर महिला खिलाड़ियों के लिए, आजकल आम बात बन गयी है. लेकिन आदिवासी लड़की सिरिसा करामी को जब अगले अगस्त में चीन में होने वाले ब्रिक्स टूर्नामेंट के लिए 18 वर्ष से कम आयु की भारतीय महिला वॉलीबॉल टीम में स्थान मिल गया तब यह राज्य के लिए ही नहीं बल्कि देश के लिए एक ख़ास ख़बर बन गयी.
इसका कारण था सिरिसा एक पूर्व माओवादी महिला की बेटी हैं.
धोनी की तरह धुनाई करना चाहती है कश्मीरी लड़की
ओडिशा में माओवादियों का गढ़ मने जाने वाले मालकानगिरी ज़िले की यह 15 साल की लड़की कदकाठी में वैसे तो सामान्य ही लगती है. लेकिन वॉली के मैदान में उसकी चुस्ती, फूर्ती और तेज़ी देखते ही बनती है.
इसी वर्ष केरल के एर्नाकुलम में हुए सेलेक्शन ट्रायल्स में सिरिसा ने अपनी प्रतिभा से चयनकर्ताओं को इतना प्रभावित किया कि उसे तत्काल 30 सदस्यीय भारतीय टीम में शामिल कर लिया गया.
हालाँकि अंत में 12 खिलाड़ियों की टीम ही चीन जाएगी. लेकिन सिरिसा और उसके कोच ज्ञानेंद्र बोढ़ाई को तनिक भी संदेह नहीं है कि उसे चीन जाने वाली टीम में स्थान मिलेगा.
आत्मविश्वास से लबरेज
मैंने जब उनसे पूछा, "क्या आपको फाइनल टीम में जगह मिल जाएगी?"
तो सिरिसा ने बड़े ही शांत ढंग से केवल एक ही शब्द में जवाब दिया, "ज़रूर".
कोच बोढ़ाई, जिन्हें अपने पिता को खो चुकी सिरिसा 'बापा' (पिताजी) कहकर बुलाती हैं, ने हमें इस विश्वास का राज़ बताया.
उन्होंने बताया, "एर्नाकुलम में सेलेक्शन ट्रायल्स के दौरान पूरे देश से आई खिलाड़ियों को वह देख चुकी है और उनके साथ खेल चुकी है. इसलिए उसे पता है कि वह कितने पानी में है. मैं दावे के साथ कह सकता हूँ इसकी जैसी प्रतिभावान खिलाड़ी भारत में बहुत कम हैं."
सिरिसा मालकानगिरी के सबसे अधिक माओवादी प्रभावित इलाक़ा कालीमेला की एक कन्याश्रम (आदिवासी लड़कियों के लिए राज्य सरकार द्वारा चलाये जा रहे आवासिक स्कूल) की सातवीं कक्षा में पढ़ रही थी जब कोच बोढ़ाई की नज़र उन पर पड़ी.
बोढ़ाई ज़िले के खेल अधिकारी भी हैं.
उस वक्त वो ज़िले के अलग-अलग स्कूलों में जाकर वॉलीबॉल प्रतिभा की तलाश कर रहे थे.
बोढ़ाई कहते है, "उसकी फूर्ति, शक्ति और स्टैमिना ने मुझे काफी प्रभावित किया और में उसे मालकानगिरी ले आया, जहाँ वह सोपर्ट्स हॉस्टल में रहकर प्रशिक्षण लेने लगी."
इसके बाद सिरिसा ने जिला और राज्य स्तर पर अपना वॉलीबॉल के जौहर दिखाकर सबका मन मोह लिया और आखिरकार केरल में ओडिशा का प्रतिनिधित्व करते हुए भारतीय दल में स्थान भी पा लिया.
आसान नहीं रहा सफर
लेकिन कालीमेला के कन्याश्रम से भारतीय महिला वॉलीबॉल टीम तक का सिरिसा का सफर आसान नहीं रहा.
सिरिसा की माँ सेलम्मा करामी कन्याश्रम में रसोई का काम करतीं हैं, जिससे उनका गुज़ारा बड़ी मुश्किल से हो पाता है.
अपने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए सेलम्मा बताती है, "सन् 1994 में माओवादी संगठन छोड़ने के बाद 6-7 साल तक तो मैं थानों और अदालतों के चक्कर काटती रही. फिर 2001 में मालकानगिरी की तत्कालीन कलेक्टर के सौजन्य से मुझे कालीमेला कन्याश्रम में रसोइये की नौकरी मिली. तनख्वाह थी 1020 रुपये, जो बढ़ कर अब 7440 हुई है. लेकिन इतने से कहाँ गुज़ारा हो पाता है? इसलिए मैं मज़दूरी करती हूँ और जंगलों में जाकर कुछ जंगलों की चीज़ें लाती हूँ जिन्हें बेचकर कुछ पैसे मिल जाते हैं."
सेलेम्मा न बताया की सिरिसा बचपन से ही खेलकूद में काफी तेज़ थी और स्थानीय टूर्नामेंटों में हमेशा ट्रॉफी जीता करती थी.
वो बताती हैं, "हालाँकि उस समय वह ज्यादातर दौड़ में ही हिस्सा लेती थी. बाद में जब सर (बढ़ाई) की नज़र उसपर पड़ी तो उसके सितारे चमक उठी."
अक्सर यह देखा जाता है की खेलकूद में तेज बच्चे पढ़ाई में पीछे पड़ जाते हैं. लेकिन सिरिसा के मामले में ऐसा बिलकुल नहीं है. सिरिसा ने हाल ही में हुए मैट्रिकुलेशन की परीक्षा 73.4 प्रतिशत मार्क्स के साथ पास किया है लेकिन करियर वह वॉलीबॉल में ही बनाना चाहती है.
मैंने जब सिरिसा से पूछा कि उसकी माँ की माओवादी अतीत के बारे में जानकर क्या उसे कभी बुरा लगा, तो उसका कहना था, "पहले पहले जब लोग इस बारे में मुझपर छींटाकशी करते थे तब बुरा ज़रूर लगता था. लेकिन अब नहीं लगता. जिस मुश्किल से माँ ने हम दोनों बहनों को बड़ा किया है उसके लिए मुझे अपने माँ पर फर्ख़ है, शर्मिंदगी नहीं."