कश्मीर में 'सैंडविच' बनने को मजबूर पत्रकार
हाल ही में कश्मीर में पत्रकारों के साथ पुलिस वालों के मार-पीट करने का मामला सामने आया है.
15 मार्च को भारत प्रशासित कश्मीर में पुलिस ने पत्रकारों के एक दल पर हमला कर दिया था.
इसके बाद एक बार फिर से कश्मीर में पत्रकारों के लिए जोखिम और दबाव के बीच काम करना मुश्किल हो गया है.
प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि जब मोहम्मद यासिन मलिक और मीरवाइज़ उमर फारूक़ एक दूसरे अलगाववादी नेता सैयद अली गिलानी से मिलने श्रीनगर के हैदरपुरा गए थे तब वहां तैनात पुलिसकर्मियों ने पत्रकारों को तस्वीरें लेने से मना कर दिया गया था.
'कश्मीर भारत के हाथों से निकलने के क़रीब'
कई बार गुजारिश करने के बावजूद पुलिसवालों ने फोटो पत्रकारों को पीछे धकेल दिया और उन्हें कोई भी तस्वीर नहीं लेने को कहा.
इसके बाद होने वाली धक्कामुक्की में समाचार एजेंसी एफ़पी के वरिष्ठ फोटो पत्रकार तौसीफ मुस्तफा का एक सब इंस्पेक्टर रैंक वाले पुलिस अधिकारी ने गला पकड़ लिया.
इस बीच पुलिस का ड्राइवर इन अलगाववादी नेताओं को अपनी गाड़ी में बैठाकर वहां से ले जाने में कामयाब हुआ.
इस चक्कर में पुलिस ने 'ग्रेटर कश्मीर' के फोटो पत्रकार मुबाशीर ख़ान के ऊपर लगभग गाड़ी चढ़ा ही दी थी.
'कश्मीर में पेलेट नहीं, शॉट गन हो रही इस्तेमाल'
दूसरे कई फोटो पत्रकार फ़ारूक़ जावेद, शुऐब मसूदी और वीडियो जर्नलिस्ट शेख उमर और इमरान को भी हल्की चोटें आईं.
पुलिस के इस रवैये की मीडिया के तमाम हलकों में कड़ी आलोचना हुई.
प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने प्रेस इंक्लेव के बाहर इस रवैये के ख़िलाफ़ जमकर विरोध-प्रदर्शन किया.
कश्मीर एडिटर्स गील्ड ने पुलिस के इस रवैये की कठोर शब्दों में निंदा की और घोषणा की कि पुलिस के सभी बयानों और विज्ञापनों का बहिष्कार किया जाएगा जब तक कि इस मामले में किसी की जिम्मेवारी तय नहीं हो जाती और जिम्मेवार पुलिसकर्मियों पर कोई कार्रवाई नहीं होती.
इसके बाद राज्य के पुलिस चीफ़ एस पी वैद ने इस घटना पर अफसोस जाहिर किया और उचित कार्रवाई का वादा किया.
तब जाकर फिर पुलिस के ख़िलाफ़ बहिष्कार को वापस लिया गया.
कश्मीर में चरमपंथ की नई लहर ज्यादा खतरनाक
यह पहली बार नहीं है जब मीडियाकर्मियों को पुलिस के इस तरह के रवैये का सामना करना पड़ा है.
1990 के दशक की शुरुआत में हथियारबंद आंदोलन शुरू होने के साथ ही मीडिया का अस्तित्व ख़तरे में पड़ने लगा था.
अभी पिछले साल ही गर्मियों में भड़के विरोध-प्रदर्शनों के बाद पुलिस ने कश्मीर इमेजेज, ग्रेटर कश्मीर, श्रीनगर टाइम्स और कुछ दूसरे अख़बारों के दफ्तरों पर छापा मारा और अख़बारों की प्रतियां और दूसरे प्रिंटिंग सामग्रियां जब्त कर ली थी ताकि दूसरे दिन का अख़बार ना निकल सके.
कई दिनों तक इन सभी अख़बारों को अपनी छपाई बंद करनी पड़ी थी.
एक तरह से सरकार ने 'अनौपचारिक' रूप से इन पर प्रतिबंध लगा रखा था.
हालांकि यह प्रतिबंध आधिकारिक नहीं था लेकिन सरकार ने अख़बार मालिकों तक यह बात पहुंचा दी थी कि अख़बार में काम करने वाले कर्मचारियों को कर्फ्यू के दौरान छूट नहीं दी जाएगी.
मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के साथ कई दौर की बातचीत के बाद आख़िरकार यह 'अघोषित' प्रतिबंध हट पाया था और एक बार फिर से घाटी में अख़बार छपने शुरू हुए थे.
हालांकि श्रीनगर से प्रकाशित होने वाले एक अंग्रेजी अखबार कश्मीर रीडर को कुछ समय बाद ज़िला अधिकारी की ओर से इस अख़बार पर प्रतिबंध लगने की अधिसूचना मिली थी. अधिसूचना में लिखा गया था कि, "इस अख़बार में छपने वाली सामग्री हिंसा भड़काने और समाज की शांति भंग करने के लिए उकसाने वाली है."
कश्मीर एडिटर्स गील्ड ने इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ जमकर आवाज़ उठाया और तीन महीने के बाद तब जाकर इस अख़बार लगा प्रतिबंध वापस लिया गया.
हर बार फिर चाहे साल 2008, 2010 और 2016 हो, उस समय की सरकार के सामने विकट परिस्थितियां पैदा हुई हैं और इसके बाद मीडिया को निशाना बनाया गया है.
इसमें भी ख़ास तौर पर फोटो पत्रकारों को सबसे ख़राब दौर से गुजरना पड़ा है क्योंकि वो ही फील्ड में कवर करने को लेकर सबसे ज्यादा समय तक रहे हैं.
पुलिस और दूसरी सुरक्षा एजेंसियों ने उन्हें पीटा है, प्रताड़ित किया है और कुछ को तो पेलेट और आंसू गैस के गोले के कारण गंभीर रूप से घायल भी होना पड़ा है.
इन फोटो पत्रकारों को कई बार पत्थरबाजों के पत्थरों का शिकार भी होना पड़ा है.
1990 से ही मीडियाकर्मियों को मुश्किल हालात में काम करना पड़ रहा है.
जब हथियारबंद आंदोलन अपने चरम पर था तब चरमपंथियों और फ़ौज दोनों का ही उन्हें निशाना बनना पड़ता था.
करीब एक दर्जन कश्मीरी पत्रकार इस दौर में मारे गए थे.
इसके अलावा कई पत्रकारों को तो चरमपंथियों ने अगवा भी किया. कई को पुलिस और दूसरे सुरक्षा बलों ने उठा कर प्रताड़ित किया.
चरमपंथी समूहें भी अख़बारों पर प्रतिबंध लगाते हैं तो किसी को भी इस फरमान के ख़िलाफ़ जाने की हिम्मत नहीं होगी.
कश्मीर के मीडियाकर्मी एक तरह से तलवार की धार पर चलते हैं. उनके लिए दोनों पक्षों को ख़ुश रखना कभी भी आसान काम नहीं हो सकता.
हर पक्ष अपने आप को मसीहा और विरोधियों को खलनायक बनाने में लगा रहता है और इस बीच कश्मीर की मीडिया पिसती रहती है और सैंडविच बनी रहती है.