क्यों OBOR का विरोध भारत के लिए घाटे का नहीं फायदे का सौदा है
भारत ने बीजिंंग में हुए ओबीओआर यानी वन बेल्ट वन रोड शिखर सम्मेलन में हिस्सा न लेकर दुनिया को यह संदेश दे दिया है कि वह चीन के इस प्रोजेक्ट का सख्त विरोध कर रहा है, जो जायज भी है।
भारत ने बीजिंंग में हुए ओबीओआर यानी " वन बेल्ट वन रोड शिखर सम्मेलन" में हिस्सा न लेकर दुनिया को यह संदेश दे दिया है कि वह चीन के इस प्रोजेक्ट का सख्त विरोध कर रहा है, जो जायज भी है। भारत के इस रूख से चीन का खफा होना स्वाभाविक है। इस सम्मेलन में पाकिस्तान समेत 29 देशों के नेताओं ने हिस्सा लिया। भारत ने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर से होकर गुजरने वाले 50 अरब डॉलर के चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) को लेकर संप्रभुता संबंधी चिंताओं के कारण इसका बहिष्कार किया। इससे चीन बेहद नाराज प्रतीत हो रहा है। हालांकि भारत ने एक अधिकारिक बयान जारी कर पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि वह चीन के इस पहल का हिस्सा नहीं होगा लेकिन इससे ढांचागत विकास के लिए इसके पड़ोसी देशों के बीच सहयोग संबंधी रुख कतई प्रभावित नहीं होगा। भारत को मुख्य रूप से चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) को लेकर चिंताएं हैं कि इससे विवादित कश्मीर क्षेत्र पर असर पड़ सकता है। हालांकि चीन ने कहा कि ओबीओआर एक बड़ी आर्थिक सहयोग एवं विकास योजना है जिसमें कोई भी शामिल हो सकता है। इसका लक्ष्य ओबीओआर मार्ग के पास स्थित देशों में ढांचागत विकास करना है ताकि स्थानीय लोगों को लाभ हो सके। भारत के इस सम्मेलन में हिस्सा न लेने से चीन की नाराजगी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चीन ने बार-बार कहा है कि सीपीईसी के कारण कश्मीर विवाद पर उसका रूख नहीं बदलेगा। यदि इसके बावजूद भारत ओबीओआर के प्रति अपनी कड़ा विरोध बरकरार रखता है तो यह खेदजनक है लेकिन यह कोई समस्या नहीं है। निश्चित रूप से इससे चीन की बौखलाहट दिख रही है।
तीनों महाद्वीपों की परियोजना पर चीन ने खर्च किए साठ अरब डॉलर
ओबीओआर चीन की एक अति महत्त्वाकांक्षी परियोजना है और इसी पर व्यापक सहमति बनाने के मकसद से उसने यह सम्मेलन आयोजित किया था। प्रस्तावित परियोजना कितनी विशाल है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दुनिया की आधी से अधिक आबादी, तीन चौथाई ऊर्जा-स्रोत और चालीस फीसद जीडीपी इसके दायरे में आएंगे। इस परियोजना के तहत सड़कों, रेलवे और बंदरगाहों का ऐसा जाल बिछाया जाएगा जो एशिया, अफ्रीका और यूरोप के बीच संपर्क और आवाजाही को आसान बना देंगे। तीनों महाद्वीपों के पैंसठ देशों को जोड़ने की इस महापरियोजना पर चीन 2013 से साठ अरब डॉलर खर्च कर चुका है और अगले पांच साल में इस पर छह सौ से आठ सौ अरब डॉलर निवेश करने की उसकी योजना है। चीन का मानना है कि यह दुनिया का सबसे बड़ा ‘सिल्क रूट' होगा और वैश्विक अर्थव्यवस्था की सुस्ती को तोड़ने में कारगर होगा। प्रस्तावित परियोजना के दायरे और संभावित असर ने स्वाभाविक ही दुनिया भर की दिलचस्पी इसमें जगाई है, जो कि बीआरआई यानी बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव शिखर सम्मेलन में अनेक देशों के राष्ट्राध्यक्षों समेत बहुत-से देशों के राजनीतिक नेताओं और प्रतिनिधिमंडलों की भागीदारी से भी जाहिर है। लेकिन अपने तय रुख के मुताबिक भारत ने इस सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया। दरअसल, भारत का एतराज सीपीईसी की वजह है। चीन सीपीईसी का निर्माण पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में कर रहा है, जिस भूभाग को भारत अपना हिस्सा मानता है। सीपीईसी ओआरओबी का हिस्सा है। इसलिए सीपीईसी से भारत के विरोध की परिणति ओआरओबी से अलग रहने के रूप में हुई है। जाहिर है, भारत का एतराज संप्रभुता से संबंधित है, न कि परियोजना के आर्थिक या व्यापारिक पक्ष को लेकर। अलबत्ता उसने कुछ दूसरे सवाल भी उठाए हैं। मसलन, परियोजना के तहत दिए जाने ऋण की अदायगी आसान हो। क्या यह मुद्दा उठा कर भारत ने ओआरओबी के दायरे में आने वाले छोटे देशों तथा बलूचिस्तान की दुखती रग पर हाथ रखना चाहा है।
पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में चीनी कंपनियों का बढ़ता गया दखल
गौरतलब है कि गिलगित-बल्तिस्तान के बहुत सारे लोग सीपीईसी को शक की नजर से देखते हैं; उन्हें लगता है कि सीपीईसी उनके लिए किसी दिन नई गुलामी का सबब बन जाएगा। एक तरफ पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में चीनी कंपनियों का दखल बढ़ता गया है और दूसरी तरफ चीन से ऊंची ब्याज दरों पर कर्ज लेने की पाकिस्तान की मजबूरी भी बढ़ती गई है। यही नियति ओआरओबी के दायरे में आने वाले अन्य छोटे देशों की भी हो सकती है। एक तरफ उनके बाजार चीन के सस्ते उत्पादों से पट जाएंगे, और दूसरी तरफ वहां की सरकारें चीन से महंगे ऋण लेने को विवश होंगी। लेकिन तब हो सकता है वहां का राजनीतिक नेतृत्व कुछ ढांचागत परियोजनाओं का हवाला देकर, चीन के आगे झुकते जाने की विवशता को भी विकास के रूप में पेश करे। ओआरओबी चीन के राष्ट्रपति शी जिनफिंग का सपना है। पर चीन की महा तैयारी के बावजूद ओआरओबी की राह आसान नहीं होगी। कई देशों का चीन के प्रति संदेह-भाव भी बाधा बन सकता है। अमेरिका से चीन की प्रतिस्पर्धा और दक्षिण चीन सागर के विवाद का भी असर पड़ सकता है। उधर, भारत भी चीन की इस चाल की काट ढूंढ़ते हुए मॉरिशस के साथ मिलकर ऊर्जा कूटनीति के जरिये करारा जवाब देने की तैयारी में जुट गया है। कहा जा रहा है कि जिस तरह भारत आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की रणनीति के तहत अफगानिस्तान के साथ मिलकर काम कर रहा है। ठीक उसी प्रकार चीन के ओबीओआर के खिलाफ मॉरीशस के साथ मिलकर काम करेगा। भारत लगातार इंडोनेशिया से लेकर मॉरिशस तक ऊर्जा संबंधों को मजबूत बनाने की तैयारी में जुटा है। इससे भारत पश्चिम की ओर से किये जा रहे अवरोधों को समाप्त करने में सक्षम हो सकेगा। खबर में बताया गया है कि भारत हिंद महासागर क्षेत्र में अपने सभी करीबी देशों को साधने में जुटा है, जिसमें मॉरिशस की भूमिका अहम बतायी जा रही है। इससे पहले भी भारत मॉरिशस को पेट्रोलियम उत्पादों को सप्लाई करता रहा है। मॉरिशस के साथ जुड़ने से भारत अपनी पकड़ अफ्रीकी देशों तक भी बना सकता है।
हिंद महासागर में भारत-इंडोनेशिया ऊर्जा संबंध की शुरुआत कर रहे हैं
दूसरी ओर हिंद महासागर में भारत और इंडोनेशिया ऊर्जा संबंध की शुरुआत कर रहे हैं। बता दें कि इंडोनेशिया हाइड्रोकार्बन के क्षेत्र में विश्व के सबसे बड़े स्त्रोतों में से एक है और वह ओपेक से भी बाहर है। अप्रैल में ऊर्जा मंत्री पियुष गोयल ने इंडोनेशिया के साथ दोबारा बातचीत शुरू की, जिसमें भारत एक नई परियोजना पर काम कर रहा है। भारत के इस मिशन के तहत फ्लोटिंग स्टोरेज और रीगैसिफिकेशन यूनिट्स बनायी जा रही हैं, ताकि इंडोनेशिया में स्थित हजारों द्वीपों में ऊर्जा की आपूर्ति निर्बाध रूप की जा सके। इसके तहत भारत इंडोनेशिया से गाड़ियों में इस्तेमाल होने वाली एलएनजी किट की सप्लाई बढ़ाने पर जोर दे रहा है। हाल ही में चीन और म्यांमार के बीच हुई एक डील के कारण यहां की 80 फीसदी प्राकृतिक गैस चीन को मिलती है, हालांकि भारत असम से म्यांमार को डीजल की सप्लाई करता रहा है। अब भारत म्यांमार को साधने के लिए अपनी मदद बढ़ा सकता है। यह रणनीति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक्ट ईस्ट पॉलिसी का एक बड़ा हिस्सा बतायी जा रही है। जिस प्रकार पश्चिम में पाकिस्तान लगातार चीन के करीब जा रहा है, उसी की काट के लिए भारत पूर्व में मौजूद अपने पड़ोसियों को अपने साथ लाना चाहता है। निश्चित रूप से भारत के इस रूख से चीन की चिंता भी बढ़ेगी। बहरहाल, देखना है कि आगे-आगे क्या होता है?