चीन को समझने में भूल कर रहे हैं भारतीय?
क्या भारतीय मीडिया और विशेषज्ञ चीन को समझने में अपने अधूरे ज्ञान का परिचय दे रहे हैं? एक चीनी विशेषज्ञ का आकलन-
भारत और चीन के बीच डोकलाम सीमा पर पिछले पांच हफ़्तों से ज़्यादा दिनों से तनाव जारी है. दुनिया भर के कई विश्लेषक चिंता जता रहे हैं कि इस गतिरोध से युद्ध की आशंका गहरा रही है.
रविवार को द चारहार इंस्टिट्यूट के रिसर्च फेलो और चाइना वेस्ट नॉर्मल यूनिवर्सिटी में सेंटर फोर इंडियन स्टडीज के निदेशक लोंग शिन्चुन का चीन के सरकारी अख़बार ग्लोबल टाइम्स में भारत-चीन तनाव पर एक विश्लेषण छपा है.
इस विश्लेषण में लोंग ने लिखा है कि चीन युद्ध नहीं चाहता है.
उन्होंने लिखा, ''भारतीय मीडिया और विश्लेषक इस गतिरोध के लिए चीन को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं. ये बता रहे हैं कि चीन भारत को उकसा रहा है ताकि वह अपनी आंतरिक समस्याओं से ध्यान हटा सके. यहां तक की भारतीय मीडिया में इस तनाव को कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ चाइना की 19वीं कांग्रेस से भी जोड़ा जा रहा है. इन विश्लेषणों से साबित होता है कि भारतीय मीडिया और वहां के विश्लेषकों का चीन का बारे में ज्ञान कितना अधूरा है.''
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जानकारी का अभाव
लोंग ने लिखा है, ''जहां तक मैं जानता हूं उसके मुताबिक भारत में 200 से ज़्यादा चीनी मामलों के विशेषज्ञ नहीं हैं. इममें से महज 10 फ़ीसदी लोग मंदारिन पढ़ या बोल सकते हैं. इनमें से ज़्यादातर विशेषज्ञ चीन को लेकर अमरीका और यूरोप से प्रकाशित होने वाली सामग्री इंग्लिश में पढ़ते हैं. दुख की बात है इस स्थिति में भी वो दावा करते हैं कि चीन के बारे में सब कुछ जानते हैं.''
लोंग ने लिखा है, ''चीन में मौजूद भारतीय रिपोर्टर शायद ही चीनी भाषा समझते हैं. यहां तक की इनमें से कुछ लोग जब अपने पड़ोसी को 'कम्युनिस्ट चाइना' के रूप में व्याख्या करते हैं तो ऐसा लगता है कि यह टर्म 40 साल पहले का है. दुखद यह है कि ये लोग भारत की समझ को आकार देते हैं और चीन पर अपना फ़ैसला सुनाते हैं.''
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भारत की समस्याएं चीन से अधिक
लोंग ने लिखा है, ''चीन में कई तरह की घरेलू समस्याएं हैं फिर भी भारत जिन आंतरिक समस्याओं से जूझ रहा है उसकी तुलना में कुछ भी नहीं हैं. ज़ाहिर है संघर्ष की तुलना में 19वीं कांग्रेस की तैयारी के लिए चीन को घरेलू शांति और एक शांतिपूर्ण अंतरराष्ट्रीय वातावरण चाहिए. यह एक ऐसी बात है जिसे भारतीयों को समझने में दिक्कत होती है.''
लोंग ने लिखा है, ''मैं कई भारतीय विशेषज्ञों से मिला हूं. वो कहते हैं कि 1962 का युद्ध चीन ने अपनी आंतरिक समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए छेड़ा था. मैं उनसे कहता हूं- मान लो अगर यह सच है तो फिर चीन ने भारत को ही क्यों चुना? चीन ने भारत और भूटान को छोड़ ज़्यादातर पड़ोसियों से सीमा विवाद को सुलझा लिया है. क्या यह उकसाना नहीं है?''
लोंग ने लिखा है, ''डोकलाम इलाक़े में भारतीय सैनिक चीनी क्षेत्र में घुसे. इस हालत में भी चीन की सरकार ने संयम का परिचय दिया. भारत को युद्ध की ज़रूरत नहीं है. हालांकि भारत के सेना प्रमुख बिपिन रावत ने दावा किया है कि भारतीय सेना ढाई मोर्चों पर युद्ध के लिए तैयार है. वहीं कुछ भारतीयों का मानना है कि उनकी सेना चीनी आर्मी से दो-दो हाथ करने और 1962 का बदला लेने के लिए पर्याप्त रूप से मजबूत है.''
उन्होंने लिखा है, ''1980 के दशक की शुरुआत में भारत की अर्थव्यवस्था चीन के बराबर थी लेकिन अभी जीडीपी और प्रतिव्यक्ति आय चीन का महज पांचवां हिस्सा ही है. पिछले 20 सालों में आर्थिक सुधार और विकास की ठोस बुनियाद भारत में रखी गई है और इस दौर में तेजी से तरक्की भी हुई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सुधारों से भारत के पक्ष में अंतरराष्ट्रीय माहौल भी बना है.''
तबाह होगी अर्थव्यवस्था
लोंग ने लिखा है, ''अगर भारत अभी व्यापक पैमाने पर चीन के साथ युद्ध करता है तो इससे केवल विदेशी निवेश ही नहीं तबाह होगा बल्कि अर्थव्यवस्था में भी अफ़रातफ़री मच जाएगी. अगर छोटा युद्ध भी होता है तो चीन और भारत के बीच इसका लंबे समय तक असर दिखेगा. भारत की आर्थिक प्रगति बुरी तरह से प्रभावित होगी और उभरने का मौक़ा हाथ से निकल जाएगा.''
उन्होंने लिखा है, ''एक युद्ध पूरी तरह से असंभव नहीं है. पूरी तरह से ग़लत समय और स्थान पर लड़े गए युद्धों के कई उदाहरण हैं. ऐसे में कुल मिलाकर दोनों देशों के राजनयिकों को चाहिए कि युद्ध से बचें. अंततः हमें मुगालते में नहीं रहना चाहिए. 1962 के युद्ध ने भारतीयों को चीन के प्रति दशकों के लिए शत्रुतापूर्ण बना दिया.''
उन्होंने लिखा है, ''आज की तारीख़ में एक बड़ा युद्ध हुआ तो दोनों पक्षों में सदियों की दुश्मनी हो जाएगी. अगर वर्तमान गरितोध का समाधान राजनयिक स्तर पर ढूंढ भी लिया जाता है तब भी दोनों देशों के द्वीपक्षीय संबंधों पर इसकी छाया पड़ चुकी है. भारत-चीन संबंध पर इसका असर लंबे समय तक रहेगा.''