1965: एक 'बेकार' युद्ध से क्या हासिल हुआ?
भारत पाकिस्तान के बीच 1965 के युद्ध से किस देश को क्या मिला.
3 जनवरी, 1966 को लाल बहादुर शास्त्री के प्रतिनिधिमंडल से दो घंटे पहले अयूब का प्रतिनिधिमंडल ताशकंद पहुंचा. सोवियत संघ ने भारत और पाकिस्तान को बराबर का दर्जा देने के लिए ख़ासी मेहनत की थी और दोनों टीमों के नेताओं को लगभग एक जैसे आलीशान डाचा में ठहराया गया था.
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ख़ुद प्रधानमंत्री कोसिगिन पिछले कई दिनों से ताशकंद में मौजूद थे और व्यवस्था की ज़िम्मेदारी संभाले हुए थे. कोसिगिन को पहला झटका तब लगा जब 3 जनवरी को ही अयूब ने उन्हें सूचित किया कि अगले दिन जब वो शास्त्री से मिलेंगे तो उनसे हाथ नहीं मिलाएंगे. अयूब को इस बात का डर था कि उनकी शास्त्री से हाथ मिलाती तस्वीर जब पाकिस्तान के अख़बारों में छपेगी, तो उन पर इसका बुरा असर पड़ेगा.
फ़्रॉम कच्छ टू ताशकंद के लेखक फ़ारूख़ बाजवा ने बीबीसी को बताया, "अयूब की इस बात पर कोसिगिन बहुत नाराज़ हुए. उन्होंने कहा कि एक सरकार के प्रमुख के तौर पर शास्त्री सम्मान के हक़दार हैं और अयूब को इससे उन्हें महरूम नहीं करना चाहिए. कोसिगिन का रुख देख कर अयूब ने अपना विचार बदल दिया था."
भुट्टो ने ताली नहीं बजाई
जब 4 जनवरी को अयूब और शास्त्री पहली बार मिले तो उस मौके पर शास्त्री, अयूब और कोसिगिन ने भाषण दिए. शास्त्री के भाषण पर काफ़ी तालियां बजीं. सिर्फ़ एक शख़्स ने ताली नहीं बजाई, वो थे पाकिस्तान के विदेश मंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो.
सी पी श्रीवास्तव शास्त्री पर लिखी अपनी किताब में लिखते हैं कि भुट्टो से ताली बजवाने के लिए अयूब को उन्हें बाक़ायदा कोहनी मारनी पड़ी. ताशकंद समझौते से दूरी बनाने की भुट्टो की ये पहली सार्वजनिक कोशिश थी. 5 जनवरी को अचानक पता चला कि ये भुट्टो का जन्म दिन है.
पाकिस्तान के सूचना सचिव अल्ताफ़ गौहर ने उसी समय उनके लिए एक छोटी जन्मदिन पार्टी आयोजित की लेकिन वहां मौजूद लोग साफ़ देख पा रहे थे कि उस दिन भुट्टो का ध्यान ताशकंद के अलावा कहीं और था.
पूरी बैठक में अयूब सिर्फ़ सतही तौर पर बोल रहे थे. विस्तृत बातचीत करने की ज़िम्मेदारी भुट्टो को सौंपी गई थी.इसकी वजह से कोसिगिन का काम मुश्किल हो रहा था, क्योंकि पाकिस्तानी ख़ेमे से दो अलग अलग आवाज़ें सुनाई पड़ रही थीं.
अपनी निजी बातचीत में सोवियत नेता भुट्टो को विचारों का विनाशक बतला रहे थे. सीपी श्रीवास्तव शास्त्री पर लिखी अपनी किताब में लिखते हैं, "भुट्टो का अंग्रेज़ी भाषा पर ज़बरदस्त कमांड था. वो बार बार में मसौदे में या तो कभी एक कॉमा लगवाने पर ज़ोर देते या उसे हटवाने पर अड़ जाते जिससे वाक्य का पूरा मतलब ही बदल जाता. सोवियत सोचने लगे थे कि भुट्टो के साथ बहुत सतर्क रहने की ज़रूरत है."
हाजी पीर पर कोसिगिन का तर्क
सबसे पहले बात शुरू हुई जीती हुई ज़मीन वापस करने के बारे में. शास्त्री ने कोसिगिन से कहा, "हम आत्म रक्षा के तौर पर हाजी पीर पर कब्ज़ा करने के लिए बाध्य हुए थे ताकि पाकिस्तान की तरफ़ से होने वाली घुसपैठ को रोका जा सके. अगर हम वहां से हट जाएं तो इस बात की क्या गारंटी है कि पाकिस्तान फिर से उस इलाके से हमारे इलाके में घुसपैठ नहीं शुरू कर देगा? मैं समझता हूँ कि हाजीपीर ख़ाली करने के बारे में आप हमारी मुश्किलों को समझेंगे. दूसरी जगहों को ख़ाली करने के बारे में बात की जा सकती है."
कोसिगिन ने जवाब दिया, "हम हाजीपीर के बारे में आपकी चिंता को समझते हैं लेकिन अगर आप वहां से नहीं हटे तो पाकिस्तान छंब और दूसरे भारतीय इलाकों से नहीं हटेगा और आप लाहौर और सियालकोट सेक्टर से नहीं हटेंगे. इस हालत में कोई समझौता नहीं हो पाएगा और आप को ख़ाली हाथ अपने देश लौटना पड़ेगा. सवाल ये है कि क्या हाजी पीर आपके लिए इतना महत्वपूर्ण है कि संभावित युद्ध की कीमत पर भी आप इस पर बने रहना चाहेंगे?"
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अगले दिन शास्त्री ने इस मुद्दे पर रक्षा मंत्री यशवंत राव चव्हाण से बात की. उन्होंने भी कहा कि हाजी पीर के मुद्दे पर शांति की संभावना को ख़तरे में नहीं डाला जा सकता.7 जनवरी को अयूब और शास्त्री के बीच दो छोटी छोटी बैठकें हुई, लेकिन उनका कोई परिणाम नहीं निकला. अयूब का ज़ोर कश्मीर पर था जबकि शास्त्री उस पर इस शिखर बैठक के दौरान औपचारिक रूप से कोई चर्चा ही नहीं करना चाहते थे.
अचानक अयूब ने शास्त्री से उर्दू में कहा, "कश्मीर के मामले में कुछ ऐसा कर दीजिए कि मैं भी अपने मुल्क में मुंह दिखाने के काबिल रहूं." शास्त्री ने बहुत विनम्रता लेकिन मज़बूती से कहा, "सदर साहब, मैं बहुत माफ़ी चाहता हूँ कि मैं इस मामले में आपकी कोई ख़िदमत नहीं कर सकता."
हस्तलिखित नोट
कोसिगिन ने शास्त्री से कश्मीर पर कुछ रियायत देने के लिए कहा. शास्त्री इसके लिए राज़ी नहीं हुए यहाँ तक कि उन्होंने ये वक्तव्य देने के लिए भी इनकार कर दिया कि वो और अयूब कश्मीर पर बात करने के लिए बाद में मिलेंगे.
शास्त्री को अटल देख कोसिगिन ने अयूब पर दबाव डाला. अंतत: अयूब राज़ी हो गए और शास्त्री से अंतिम सत्र की बातचीत करने के लिए तैयार हो गए.
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पाकिस्तान की तरफ से आए समझौते के मसौदे में लिखा गया था, "दोनों देशों के बीच सभी मुद्दे शांतिपूर्ण तरीके से संयुक्त राष्ट्र चार्टर के तहत हल किए जाएंगे." शास्त्री ने ज़ोर दिया कि इस टाइप्ड मसौदे में अयूब अपने हाथ से जोड़े, "बिना हथियारों का सहारा लिए हुए."
अयूब ने ऐसा ही किया. बाद में जब भुट्टो ने अपने भाषणों में ताशकंद समझौते की गुप्त शर्तों का ज़िक्र किया तो संभवत: उनका आशय इस हस्तलिखित नोट से रहा होगा जिसे अयूब ने शास्त्री के ज़ोर देने पर अपने हाथों से लिखा था.
ग्रोमिको की नाराज़गी
9 जनवरी की आधी रात को सोवियत विदेश मंत्री ग्रोमिको के पास एक संदेश आया कि भुट्टो उनसे टेलिफ़ोन पर बात करना चाहते हैं.
सी पी श्रीवास्तव लिखते हैं, "ग्रोमिको फ़ोन पर आए. दूसरे छोर पर भुट्टो कह रहे थे कि मसौदे से हथियार न इस्तेमाल करने की शर्त हटा दी जाए. ये सुनते ही आम तौर से संयत रहने वाले ग्रोमिको का चेहरा गुस्से से लाल हो गया. उन्होंने कहा कि इस पर अभी थोड़ी देर पहले ही अयूब और आप ने सहमति दी है. अब इससे पीछे हटने के लिए बहुत देर हो चुकी है और ऐसा करना बहुत बहुत बुरा होगा. ग्रोमिको का कड़ा रुख़ देख कर भुट्टो ने अपनी बात पर ज़ोर नहीं दिया."
लेकिन भुट्टो ने इस समझौते को राजनीतिक तौर पर बहुत भुनाया और इसकी शुरुआत उन्होंने ताशकंद से ही कर दी थी. समझौते पर दस्तख़त होने के बाद वो वही शख़्स थे जिन्होंने ताली नहीं बजाई. यहां तक कि जब अयूब भाषण दे रहे थे, भुट्टो बार-बार अपना सिर हिला रहे थे मानो कह रहे हों कि इस समझौते से उनका कोई लेना देना नहीं है.
इसके कुछ ही घंटों के अंदर शास्त्री को अचानक दिल का दौरा पड़ा और उनका निधन हो गया. जब वो रात के 9 बज कर 45 मिनट पर अयूब से आख़िरी बार मिले थे तो अयूब ने कहा था, "ख़ुदा हाफ़िज." शास्त्री ने भी कहा, "ख़ुदा हाफ़िज़" और फिर जोड़ा, "अच्छा ही हो गया."
इस पर अयूब बोले, "ख़ुदा अच्छा ही करेगा.
जब शास्त्री के शव को दिल्ली लाने के लिए ताशकंद हवाई अड्डे पर ले जाया जा रहा था तो रास्ते में हर सोवियत, भारतीय और पाकिस्तानी झंडा आधा झुका हुआ था. जब शास्त्री के ताबूत को कार से उतार कर विमान पर चढ़ाया जा रहा था तो उसको कंधा देने वालों में सोवियत प्रधानमंत्री कोसिगिन के साथ साथ पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ां भी थे.
बेकार की लड़ाई
मानव इतिहास में ऐसे बहुत कम उदाहरण है कि एक दिन पहले एक दूसरे के घोर दुश्मन कहे जाने वाले प्रतिद्वंदी न सिर्फ़ एक दूसरे के दोस्त बन गए थे, बल्कि दूसरे की मौत पर अपने दुख का इज़हार करते हुए उसके ताबूत को कंधा दे रहे थे.
शास्त्री के जीवनीकार सी पी श्रीवास्तव लिखते हैं कि उन्होंने अपनी आंखों से देखा था कि शास्त्री की मौत पर अयूब कितने रंज और सदमे में थे. अगले दिन जब ताशकंद समझौते की ख़बर के साथ अयूब के शास्त्री के शव को कंधा देती तस्वीर पाकिस्तानी अख़बारों में छपी, तो पाकिस्तान के लोग आश्चर्यचकित रह गए.
धीरे धीरे उन्हें अहसास हुआ कि ताशकंद घोषणा पाकिस्तान की एक तरह की कूटनीतिक हार थी. कश्मीर जिसके लिए इतनी बड़ी लड़ाई लड़ी गई थी, उसका इसमें कोई ज़िक्र ही नहीं किया गया था. उनके लिए 1965 की लड़ाई एक बेकार की लड़ाई साबित हुई थी.