राजमाता विजयराजे और बेटे माधवराव सिंधिया के संबंधों में तल्ख़ी क्यों आई थी?
"एक ज़माना था कि राजमाता और उनके बेटे माधवराव सिंधिया के बीच संबंध इतने प्रगाढ़ थे कि माधवराव अपनी महिला मित्रों तक की चर्चा अपनी माँ से किया करते थे."
भारतीय प्रजातंत्र में वंशवाद की बात की जाए तो नेहरू-गाँधी वंश के बाद कई और वंश जैसे मुलायम और लालू, पायलट, करुणानिधि और कश्मीर में अब्दुल्ला घराना भारतीय राजनीति का हिस्सा बन चुके हैं.
इन्हीं में से एक है ग्वालियर का सिंधिया घराना, जिसका कोई न कोई सदस्य 1957 से ले कर अब तक भारतीय संसद या विधानसभा का सदस्य रहा है जबकि 1991 से 1996 तक पाँच वर्ष का समय ऐसा भी रहा है जब नेहरू वंश का कोई सदस्य भारतीय संसद का सदस्य नहीं रहा.
माधवराव की माँ और ग्वालियर की राजमाता विजयराजे सिंधिया ने कांग्रेस पार्टी से अपना राजनीतिक करियर शुरू किया था. इसके बाद पहले उन्होंने स्वतंत्र पार्टी की सदस्यता ली और उसके बाद भारतीय जनता पार्टी के सस्थापकों में से एक बनीं.
उनके बेटे माधवराव सिंधिया ने 1971 में जनसंघ के समर्थन से चुनाव जीता लेकिन 1979 आते-आते उन्होंने कांग्रेस का दामन पकड़ लिया.
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शुरू में माँ-बेटे के बीच थे अच्छे संबंध
हाल ही में जानेमाने राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई की एक किताब प्रकाशित हुई है 'द हाउस ऑफ़ सिंधियाज- ए सागा ऑफ़ पावर, पॉलिटिक्स एंड इन्ट्रीग' जिसमें उन्होंने सिंधिया परिवार के सदस्यों और उनके संबंधों पर प्रकाश डाला है.
रशीद किदवई बताते हैं, "एक ज़माना था कि राजमाता और उनके बेटे माधवराव सिंधिया के बीच संबंध इतने प्रगाढ़ थे कि माधवराव अपनी महिला मित्रों तक की चर्चा अपनी माँ से किया करते थे."
महारानी विजयराजे सिंधिया अपनी आत्मकथा 'प्रिंसेज़' में लिखती हैं, "भैया (माधवराव सिंधिया) और मैं दोस्तों की तरह थे. एक रात वे मेरे होटल के कमरे में आए और नीचे बिछी कालीन पर लेट गए. वो अकेला महसूस कर रहे थे. वो मुझसे रात दो बजे तक बात करते रहे. वो मुझसे इतने खुले हुए थे कि अपनी महिला मित्रों तक का ज़िक्र मुझसे करते थे."
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सिंधिया पर माँ का साथ छोड़ने का आरोप
लेकिन आख़िर ऐसा क्या हुआ कि माँ-बेटे के संबंधों में तल्ख़ी आती चली गई और वो एक दूसरे से दूर होते चले गए.
एनके सिंह जानेमाने पत्रकार हैं. उन्होंने इंडिया टुडे के 30 सिंतबर 1991 के अंक में अपने लेख 'डॉमेस्टिक बैटल बिटवीन विजयराजे एंड माधवराव सिंधिया' में लिखा था, "माधवराव सिंधिया ने मुझे बताया था कि उनके और राजमाता के संबंध 1972 से ख़राब होना शुरू हुए थे, जब वो अपनी माँ की पार्टी जनसंघ छोड़ कर कांग्रेस की सदस्यता लेना चाह रहे थे. माधवराव ने स्वीकार किया था कि ऑक्सफ़र्ड से लौटने के बाद जनसंघ की सदस्यता लेना उनकी बहुत बड़ी भूल थी."
लेकिन उसी लेख में एनके सिंह ने आगे लिखा था कि "सरदार आँगरे का मत इससे अलग था. उन्हें राजमाता 'बाल' और दूसरे लोग 'बाल्डी' कहते थे. उनका मानना था कि माधवराव ने इसलिए डर कर अपनी माँ का साथ छोड़ दिया क्योंकि जनसंघ मध्य प्रदेश में 1972 का विधानसभा चुनाव हार गई थी."
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माधवराव को सरदार आँगरे का प्रभाव था नापसंद
माधवराव सिंधिया को अपनी माता पर सरदार आँगरे का प्रभाव पसंद नहीं था. उनको इस बात पर भी ऐतराज़ था कि सिंधिया परिवार के धन को बेतरतीब ढ़ंग से राजनीति में ख़र्च किया जा रहा है.
रशीद किदवई लिखते हैं, "माधवराव राव के नज़दीकी दोस्तों की बात मानी जाए तो युवा महाराज को इस बात से बहुत धक्का पहुंचा था कि जयविलास राजमहल से धन और जेवर ग़ायब होते जा रहे थे. कहा जाता है कि सिंधिया परिवार के पास सोने, चांदी और जवाहरातों से भरे कुएं थे. माधवराव ये देख कर आश्चर्यचकित थे कि ये कुएं धीरे-धीरे ख़ाली होते जा रहे थे."
माधवराव की नज़र में उनका माँ की व्यापारिक सोच नहीं के बराबर थी. उनकी नज़र में राजमाता ने मुंबई और दूसरी जगहों पर सिंधिया परिवार की संपत्ति को बाज़ार मूल्य से कहीं नीचे औने-पौने दाम में बेच दिया था.
माधवराव सिंधिया की जीवनी में वीर सांघवी और नमिता भंडारे लिखते है, "ये दावा किया गया था कि इन सौदों में आँगरे का हाथ था और उन्हें कथित रूप से इसमें कमिशन मिलता था. राजमाता भी इन संपत्तियों की बिक्री से प्राप्त धन से कुछ पैसा आँगरे को उनकी सेवाओं के बदले देती थीं. धीरे-धीरे आँगरे विजयराजे और उनके बेटे के बीच संबंधों में कटुता लाते चले गए."
राजमाता की नज़रों में बिगड़ते संबंधों के लिए माधवी राजे थीं ज़िम्मेदार
इंडिया टुडे के संवाददाता एनके सिंह से बात करते हुए माधवराव सिंधिया ने अपनी माँ को हावी होने वाली महिला की संज्ञा दी थी.
एनके सिंह ने अपने लेख में लिखा है, "माधवराव ने मुझे बताया था कि राजमाता उन्हें पार्टी में रखने के लिए इमोशनल ब्लैकमेल कर रही हैं. उन पर सरदार आँगरे का अजीब-सा प्रभाव है. एक बार उन्होंने यहां तक कह दिया था कि मुझे हाथी के पैर के नीचे कुचलवा दिया जाना चाहिए था. अब जब वो अलग रह रही हैं, परिवार में बहुत शांति है."
उधर राजमाता ने एनके सिंह से बात करते हुए माता पुत्र के रिश्तों में दरार लाने के लिए माधवरावराव सिंधिया की पत्नी माधवीराजे को ज़िम्मेदार ठहराया था.
एनके सिंह ने लिखा था "राजमाता ने मुझे बताया था कि एक समय माधवराव को सबके सामने मेरे जूते तक उठाने में कोई हिचक नहीं थी लेकिन उनकी पत्नी को उनसे मेरी नज़दीकी बर्दाश्त नहीं थीं."
एनके सिंह बताते हैं "जब मैं राजमाता से बात कर रहा था तो सरदार आँगरे भी वहां मौजूद थे. उन्होंने बीच में बोलते हुए कहा था कि राजमाता एक माँ की तरह सारा दोष अपनी बहू पर मढ़ रही हैं. माधवराव की जो बात राजमाता को सबसे बुरी लगी थी, वो ये थी कि इमर्जेंसी के दौरान जब वो जेल में बंद थीं माधवराव नेपाल भाग गए थे. इससे उनको बहुत धक्का पहुँचा था."
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राजमाता ने आँगरे को चुना
माधवराव सिंधिया के कड़े विरोध के बावजूद राजमाता ने सरदार आँगरे को कभी अपने जीवन से अलग नहीं किया.
उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा, "मेरे पति के नज़दीकी रिश्तेदार और दोस्त के तौर पर बाल आँगरे ने मेरे परिवार के लिए अपने आप को अपरिहार्य बना लिया था. उनके और मेरे राजनीतिक विचारों में बहुत समानता थी और हिंदु धर्म के प्रति हम दोनों की सोच एक जैसी थीं. हमारे हित इस हद तक उनके हित बन गए थे कि वो हमारे वित्तीय सलाहकार बन गए थे जिनकी सत्यनिष्ठा और विश्वास के बारे में मुझे कोई संदेह नहीं था. उनकी सलाह के बग़ैर हमारे परिवार में कोई फ़ैसला नहीं लिया जाता है."
वीर सांघवी माधवराव सिंधिया की जीवनी में लिखते हैं, "माधवराव ने अपनी माँ से कहा था- अम्मा ये जारी नहीं रह सकता. आपको मुझमें और आँगरे में से एक को चुनना होगा. इस पर राजमाता ने बिना किसी मुश्किल के कहा था कि वो आँगरे को नहीं छोड़ सकतीं.''
''उन्होंने कठिनतम समय में मेरा साथ दिया है. माधवराव ने जवाब में पूछा था आप आँगरे को तब भी नहीं छोड़ेगीं अगर आपका इकलौता बेटा आपसे दूर हो जाए. इस पर राजमाता ने कोई जवाब नहीं दिया था और इस बात से नाराज़ होकर माधवराव कमरा छोड़ कर चले गए थे."
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शिवलिंग को लेकर राजमाता का अनशन
माधवराव और राजमाता के बीच तकरार का एक कारण पन्ने का एक छोटा शिवलिंग भी था.
रशीद क़िदवई बताते हैं, "ये सिंधिया परिवार का ख़ानदानी शिवलिंग था. इसे हर महाराजा द्वारा की गई पूजा में रखा जाता था. कहा जाता है कि जब ग्वालियर की सेना किसी सैनिक अभियान पर निकलती थी तो महादजी सिंधिया (सिंधिया राजवंश शुरू करने वाले रानोजी राव सिंधिया के पांचवे और सबसे छोटे बेटे) उसे हमेशा अपने मुकुट के नीचे रखते थे जिसकी वजह से उन्हें लड़ाई में विजय प्राप्त होती थी."
"उस शिवलिंग की क़ीमत का तो कोई हिसाब नहीं था लेकिन सिंधिया परिवार के लिए वो हमेशा अच्छे भाग्य की निशानी था. जब राजमाता और माधवराव के बीच दरार पड़ गई तो राजमाता ने वो शिवलिंग उनसे वापस मांगा. माधवराव की पत्नी माधवी ने सफ़ाई दी कि सिंधिया परिवार की रस्मी पूजा तभी शुभ मानी जाती है जब उसे एक विवाहित महिला करे. इससे राजमाता बहुत आहत हो गईं. उन्होंने ऐलान किया कि वो जब तक आमरण अनशन करेंगी जब तक वो शिवलिंग उनके हवाले नहीं कर दिया जाता. परेशान हो कर माधवराव ने अपनी पत्नी वो शिवलिंग अपनी मां को वापस देने के लिए कहना पड़ा."
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सामान्य शिष्टाचार का हमेशा ध्यान
लेकिन इसके बावजूद निजी संबंधों में इस दरार की झलक नहीं दिखाई दी. महाराजा और राजमाता साथ-साथ औपचारिक समारोहों में भाग लेते और सामान्य शिष्टाचार का हमेशा ध्यान रखा जाता.
वीर सांघवी और नमिता भंडारे लिखते हैं, "माधवराव के निजी सचिव महेंद्र प्रताप सिंह ने उनके साथ रहना पसंद किया. लेकिन माधवराव को पता था कि राजमाता महेंद्र प्रताप सिंह को पसंद करती हैं. उनकी नज़र में उनके दौरों के दौरान महेंद्र प्रताप सिंह से अच्छा उनका ख्याल कोई नहीं रखता था. इसलिए जब भी वो बाहर जातीं माधवराव उन्हें राजमाता के साथ जाने की अनुमति दे देते."
"लेकिन एक बार अमृतसर के दौरे पर बाल आँगरे ने महेंद्र प्रताप सिंह की उपस्थिति में माधवराव के लिए अपशब्द कहे. महेंद्र प्रताप जब वापस ग्लालियर लौटे तो उन्होंने महाराजा से साफ़ कह दिया कि वो अब राजमाता के साथ कभी बाहर नहीं जाएंगे."
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कुत्ते पर चलाई गोली
अपने पुत्र से बढ़ रहे मतभेदों के चलते राजमाता बाल आँगरे पर और अधिक निर्भर रहने लगीं. इमर्जेंसी के दौरान जब माधवराव नेपाल में थे और राजमाता जेल में थीं, आँगरे का परिवार आकर ग्वालियर में जयविलास महल के पास हिरणवन महल में रहने लगा.
रशीद किदवई बताते हैं, "इस तरह के आरोप हैं कि आँगरे की पत्नी मनु, जयविलास महल में गईं और वहां से सोने की परत चढ़े नल, झाड़फानूस और कालीनें निकाल लाईं और उन्हें अपने घर में सजा लिया. बाद में जब कांग्रेस की सरकार सत्ता में आई तो माधवराव सिंधिया ने इन सब चीज़ों को वापस लेने की कोशिश की. एक पारिवारिक सूत्र ने मुझे बताया कि जब माधवराव सिंधिया के लोग इन चीज़ों को लेने हिरणवन महल में गए तो आँगरे के लोगों ने उन पर अपने रॉटवाइलर कुत्ते छोड़ दिए. माधवराव के लोगों ने एक कुत्ते को गोली से उड़ा दिया."
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राजमाता रायबरेली में इंदिरा गाँधी से हारीं
माधवराव सिंधिया के कांग्रेस पार्टी में जाने की मुख्य वजह राजमाता की आँगरे से नज़दीकी थी. लेकिन इसके बावजूद एक रणनीति के तहत उन्होंने 1980 का चुनाव ग्वालियर से एक निर्दलीय के तौर पर लड़ा.
वहीं राजमाता ने इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ रायबरेली से हाथ आज़माने का फ़ैसला किया. अपनी राजनीति और बेटे के प्यार के अंतर्विरोध के बावजूद उन्होंने ग्वालियर के लोगों से 'महल' को चुनने की अपील जारी की.
माधवराव ने अटल बिहारी वाजपेयी के ख़िलाफ़ बहुत बड़े अंतर से ग्वालियर में जीत दर्ज की लेकिन राजमाता को रायबरेली में इंदिरा गाँधी के हाथों क़रारी हार का सामना करना पड़ा.
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ग्वालियर में वाजपेयी की हार
1984 के चुनाव में माधवराव सिंधिया ने पहले गुना से अपना पर्चा भरा लेकिन 25 नवंबर, 1984 को पर्चा भरने के अंतिम समय 5 बजे से डेढ़ घंटे पहले उन्होंने अचानक ग्वालियर आकर वहाँ से अपना पर्चा भर दिया.
ग्वालियर से अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार थे. समय इतना कम था कि वाजपेई कहीं और जा कर अपना पर्चा नहीं भर सकते थे.
जैसे ही ये ख़बर राजमाता को लगी वो हैरान रह गईं.
इस पूरी घटना पर आँगरे की पहली प्रतिक्रिया थी, "माधवराव ग्वालियर से हारेंगे. उनको ऐसा सबक मिलेगा जिसे वो कभी भूल नहीं पाएंगे."
इस चुनाव में माधवराव सिंधिया ने अटल बिहारी वाजपेयी को पराजित किया. राजमाता ने इसका बहुत बुरा माना और ख़ुद को अपमानित महसूस किया.
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लेकिन राजमाता के देहासवसान से कुछ समय पहले माधवराव अपनी मां के नज़दीक आ गए.
वीर सांघवी और नमिता भंडारे माधवराव सिंधिया की जीवनी में लिखते हैं, "राजमाता के अंतिम दिनों में माधवराव अक्सर उनके अस्पताल जाते, उनका हाथ पकड़ कर उनकी बगल में बैठते और हनुमान चालीसा पढ़ते. वसुंधरा राजे ने बाद में याद किया कि माधवराव की आवाज़ सुनते ही राजमाता की आंखों में चमक आ जाती. माधवराव की छोटी बहन यशोधरा ने बताया कि वो उन दिनों मां और बेटे की आंखों में आँसू देखती थीं."
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वसीयत में बेटे से अंतिम संस्कार का अधिकार छीना
लेकिन राजमाता के देहांत के 13 दिन बाद कहानी में एक ट्विस्ट और आया.
दिल्ली के प्रेस क्लब में बुलाई गई प्रेस कांफ्रेंस में विजयराजे सिंधिया के सचिव रहे बाल आँगरे ने 20 सितंबर, 1985 को राजमाता की हाथ से लिखी बारह पन्नों की वसीयत जारी की जिसमें उन्होंने माधवराव को अपने जीवन का सबसे दुखी अंग घोषित किया था.
माधवराव सिंधिया की जीवनी में वीर सांघवी लिखते हैं "इस वसीयत पर दो गवाहों प्रेमा वासुदेवन और एस गुरुमूर्ति के हस्ताक्षर थे. इस वसीयत में माधवराव के बारे में कहा गया था कि वो न सिर्फ़ अपने राजनीतिक आकाओं के ग़ुलाम बन गए हैं बल्कि उन्होंने मुझे और मेरे समर्थकों को परेशान करने में उनके औजार की भूमिका निभाई है. उन्होंने अपनी वसीयत में लिखा कि वो अब इस लायक भी नहीं रहे कि वो अपनी माँ का अंतिम संस्कार करें."
लेकिन इसके बावजूद माधवराव सिंधिया ने अपनी माता का अंतिम संस्कार अपने हाथों से किया.
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जब इस बारे में सरदार आँगरे से सवाल पूछा गया तो उनका जवाब था, "ये मेरे हाथ में नहीं था. उनका अंतिम संस्कार हो जाने के बाद मैंने उस वसीयत को देखा. राजमाता ने आँगरे की पत्नी को निर्देश दिया था कि उनकी मृत्यु के बाद ये लिफ़ाफ़ा बाल आँगरे को दिया जाए."
जब आँगरे से पूछा गया कि वसीयत को उनकी मृत्यु के तुरंत बाद क्यों नहीं खोला गया जैसा कि उनके निर्देश थे तो उन्होंने कहा, "ऐसा कभी नहीं किया जाता. ये मानव आचार के ख़िलाफ़ है. मुझे वसीयत की प्रति उनके अंतिम संस्कार के बाद मिली."
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माधवराव सिंधिया ने इस वसीयत को अदालत में चुनौती दी और फ़रवरी 1999 में लिखी राजमाता की लिखी एक और वसीयत अदालत में पेश की.
आठ महीने बाद माधवराव सिंधिया का एक विमान दुर्घटना में निधन हो गया. मार्च, 2008 में 87 वर्ष की आयु में बाल आँगरे ने भी इस दुनिया को अलविदा कह दिया.
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