नज़रिया: क्यों कामयाब हो रही है बीजेपी इस दौर में?
21वीं सदी के भारत में बीजेपी वोट और लोगों के दिल के साथ-साथ मनोविज्ञान पर कब्ज़ा जमाने में भी कामयाब रही है.
किसी एक दौर की अवधारणा इतिहास से भी ज्यादा जटिल और पेचीदा हो सकती है.
इतिहास स्थिर लग सकता है, उसे शब्दों में बयां किया जा सकता है, मगर उस वक़्त के कई मायने हो सकते हैं, वो विस्मय पैदा कर सकता है. वो खामोशियों को उघाड़ने वाला हो सकता है और वो इतना धोखेबाज़ हो सकता है कि उससे एक चतुर राजनेता भी बेवकूफ़ लगने लगे.
समय में वो ताकत होती है जो व्याख्याओं को उलट दे, राजनीतिक मठों को धवस्त कर दे.
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मैंने अपने लेख की शुरुआत इस विचार के साथ इसलिए की क्योंकि मैंने एक राजनीतिक इतिहासकार से पूछा था कि आज कांग्रेस और वामदलों की नपुंसकता को कोई कैसे परिभाषित करेगा. और साथ में बीजेपी की बढ़ती ताकत और उसके अंदर अपराजेय होने के आए बोध को कैसे देखेंगे.
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मैं ख़ुद को किसी भी बीजेपी का विरोध करने वाले की तरह असहाय महसूस कर रहा था. तो भी मैंने माना कि मुझे आलोचना के कुछ तरीके विकसित करने होंगे जिससे मैं बीजेपी को समझ पाऊं और फिर मैं विरोध कर सकूं.
इस संदर्भ में मेरे उस मित्र ने मुझे सलाह दी कि मैं समय को धुरी के तौर पर देखूं सिवाए इतिहास, राजनीति या ख़बरों की तात्कालिकता पर ध्यान दिए.
भारत आज उस मुहाने पर खड़ा हो गया है कि जहां विवाद का विषय राष्ट्रवाद बनाम सभ्यता और आधुनिकता बनाम पश्चिमीकरण के बीच बंट गया है.
धर्मनिरपेक्षता और परियोजना जैसे शब्दों के साथ कांग्रेस के विकास का मॉडल उच्चवर्गीय चरित्र वाला और बेगाना हो चुका है. यह अंग्रेजों की तरह का बन चुका है और गांधीजी ने भारत में इंग्लिस्तान बनने को लेकर चेतावनी दी थी. ये बदलाव आधुनिक होने की अपेक्षा पश्चिमी ज्यादा था.
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पश्चिमी रंग में रंगे हमारे बुद्धिजीवी मार्क्स और वेबर का हवाला देते रहे हैं जिनका भारत की संस्कृति से वास्तविक तौर पर कोई लेना-देना नहीं था.
वे उस विरासत के उत्तराधिकारी ज़रूर थे लेकिन उन्हें अपनी वंशावली का बोध नहीं था.
इसलिए कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे विचारों को बिना इसकी सूक्ष्मता में गए केवल मुंह से बोलती रही.
जैसे-जैसे कांग्रेस पुरानी होती गई उसका पाखंड सामने आता गया. उसके आदर्श बदलते गए और आख़िरकार उसने अपनी विश्वसनीयता खो दी.
दशकों पहले राजनीतिक विज्ञानी रजनी कोठारी ने लिखा था कि कांग्रेस लघु भारत की तरह काम करता है और जो इसकी भ्रांतियों और विवधता का प्रधिनित्व करता है.
रजनी कोठारी ने लिखा है कि कांग्रेस ने ख़ुद ही अपने आप को सर्वसत्तावादी होने से रोका है. कांग्रेस ख़ुद का ही मज़ाक बन कर रह गई है. कांग्रेस के आज के नेतृत्व को देखकर लगता है कि उन्हें अपनी विरासत के ऊपर कोई गर्व नहीं है या फिर उन्हें इसके बारे में बहुत कम जानकारी है.
भाषा विज्ञानी इस स्थिति को बोलती बंद हो जाना कहेंगे. कांग्रेस आत्ममुग्धता की ऐसी शिकार हुई कि उसने अपने अतीत को भुलाने के साथ-साथ ही अपने भविष्य का भी बेड़ा गर्क कर लिया.
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आज की तारीख में कांग्रेस की इस हालत के लिए कोई बस एक परिवार को ज़िम्मेवार ठहरा सकता है. उस परिवार को अपने इतिहास और उसकी विविधता का बोध बहुत कम है.
वे गुफा से निकलने का रास्ता भूल चुके अलीबाबा की तरह निकलने के ग़लत मंत्र जपकर अपना मखौल उड़ा रहे हैं.
सिर्फ दो ही पार्टी ऐसी है जो इससे भी बदतर हालत में हैं. वो है सीपीएम और सीपीआई जो अपनी पार्टी के अंदर के स्टालिनवाद या फिर बंगाल में उन्होंने जो नुकसान किया है उसके बारे में ही सोच सकती है.
यह नक्कारखाने में तूती की आवाज़ की तरह हो चुके है जिसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं रह गया है.
मार्क्सवाद एक कृत्रिम भाषा बनकर रह गई है जिसका आम जन की भाषा से कोई सरोकार नहीं रह गया है. डी राजा या फिर प्रकाश करात को सुनना दिलचस्प होता है लेकिन कोई भी यह बता सकता है कि वो अपनी ज़मीन खो चुके हैं.
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भारत में हारने वालों के प्रति एक उदारता की भावना रहती है. कांग्रेस और सीपीएम तब तक ऐसे ही हालत में बनी रहेंगी जब तक कि उनका पुनरुत्थान नहीं हो जाता और शायद वो कभी भी नहीं हो सकता.
कांग्रेस और सीपीएम जहां बीते हुए वक्त की निशानियां हैं तो वहीं बीजेपी ने इस समय को साधने में कामयाबी हासिल की है लेकिन पूरी तरह से नहीं.
बीजेपी को पता है कि अभी उनका वक्त चल रहा है क्योंकि उन्होंने इस पर काम किया है. उनका यह समय इतिहास को फिर से लिखने की मांग कर रहा है फिर चाहे वो राष्ट्रवाद और देशभक्ति का इतिहास हो या फिर हल्दीघाटी की लड़ाई का इतिहास.
लेकिन इतिहास को लिखने का मतलब होगा हार की भावना को बढ़ावा देना. एक ऐसा समाज जो अपनी संस्कृति को किसी भी क़ीमत पर छोड़ना नहीं चाहता, वहां यह कदम सांस्कृतिक रूप से और ज्यादा जटिलता भरा होगा क्योंकि हम पश्चिमीकरण की बजाए आधुनिकीकरण पर ज़ोर देंगे.
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इसके अलावा ये कवायद उन भारतीयों का समय बर्बाद करेगा जो सफलता के लिए व्याकुल हुए जा रहे हैं. समाजवाद में इन भारतीयों ने असफलता का स्वाद चखा हुआ है. विकास के साथ लोगों की आकांक्षाएँ बढ़ी है. टेक्नॉलॉजी में भी उनका अटूट विश्वास कायम हुआ है. इसके बावजूद वो अपनी संस्कृति को बचाए रखने का दिखावा करते हैं. इसने नागपुर और सिलिकन वैली के बीच एक रिश्ता कायम किया है.
इससे ऐसा लगा कि एक ग्लोबल भारत तैयार हुआ है. इसमें स्थानीय ताकतों के लिए जगह तैयार बनी और इसने दुनिया को बदलने पर ज़ोर दिया. यह दक्षिणपंथ और वामपंथ की राजनीति का असर नहीं था जिसने बीजेपी को 21वीं सदी की पार्टी बनाई है बल्कि इस समय और आधुनीकिकरण से जुड़ी विशेषताओं की वजह से यह संभव हो पाया है.
बीजेपी ने स्वामीनारायण, जग्गी वासुदेव और श्री श्री रविशंकर जैसे गुरुओं के माध्यम से आध्यात्मवाद को हवा दी. जिस तरह की आधुनिकता की भाषा बीजेपी बोलती है उससे भारत का मध्य वर्ग खुश है. इसमें प्रगति और बदलाव की बात के साथ-साथ स्थानीयता और स्वदेशी का पुट है.
राष्ट्रवाद के मुद्दे पर बीजेपी को विदेशों में भी समर्थन मिला. पुतिन से लेकर शिंजो आबे तक को वो कूटनीतिज्ञ कांग्रेस की तुलना में सहज-सुलभ महसूस हुए.
मोदी ने यहां के मध्य वर्ग के दिमाग में सेंध लगाने में कामयाबी हासिल की है. मध्य वर्ग उन्हें उपलब्धि हासिल किए हुए शख़्स के तौर पर देखता है. वहीं राहुल गांधी की छवि एक निष्क्रिय नेता के तौर पर बनी हुई है.
इसके अलावा मोदी को एक निर्णय लेने वाले, कुशल प्रबंधक और पौरुष वाले इंसान के तौर पर देखा जाता है.
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वो समाज जिसने इतिहास में अपना लंबा समय राशन की लाइन में लगे-लगे गुज़ार दिया हो वहां मोदी तेज़ी से बदलती हुई राजनीति और पुरुषत्व का प्रतिनिधित्व करते हुए दिखते हैं.
इन मायनों में बीजेपी होशियार साबित हुई है. उसने ना सिर्फ वोटों और लोगों के दिलों पर कब्ज़ा जमाया है बल्कि लोगों की मानसिकता में भी जगह बनाई है.
उसने चेतना के स्तर की लड़ाई में जीत हासिल की है तो वहीं कांग्रेस इसमें फिसड्डी साबित हुई है.
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एक पार्टी के तौर पर बीजेपी ने अपने मनौवैज्ञानिक कौशल का इस्तेमाल चुनावी जीत को साधने में किया.
वक्त की नब्ज़ को समझते हुए वो 21वीं सदी के भारत में छा गई है. कांग्रेस और वामपंथी दलों को अपनी खोई ज़मीन पाने के लिए इस दौर के गहरे मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की जरूरत है.
( ये लेखक के निजी विचार हैं.)