वेंकैया नायडू को वफ़ादारी का इनाम मिला है या फिर...
- वेंकैया नायडू का उपराष्ट्रपति बनना आंकड़ों के लिहाज से महज औपचारिकता भर है.
- 68 साल के वेंकैया मौजूदा सरकार में आवास और शहरी विकास मंत्रालय जैसे अहम पदों पर थे
- वेंकैया सूचना प्रसारण मंत्रालय जैसे अहम पदों पर मौजूद थे
एम वेंकैया नायडू का भारत का अगला उपराष्ट्रपति बनना आंकड़ों के लिहाज से महज औपचारिकता भर है.
68 साल के वेंकैया नायडू मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार में आवास और शहरी विकास मंत्रालय के साथ साथ सूचना प्रसारण मंत्रालय जैसे अहम पदों पर मौजूद थे. इससे पहले वे इसी सरकार में संसदीय कार्यमंत्री भी रह चुके थे.
उन्हें प्रधानमंत्री के बेहद करीबी मंत्रियों में गिना जाता रहा है, ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि वेंकैया के लिए उपराष्ट्रपति का पद प्रमोशन जैसा है या फिर उन्हें सक्रिय राजनीति से दूर रखने की कोशिश है.
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इस सवाल के जवाब में भारतीय जनता पार्टी की राजनीति को बेहद क़रीब से देखने वाले और वेंकैया नायडू के अखिल भारतीय छात्र परिषद के नेता के समय से जानने वाले वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय कहते हैं, "उपराष्ट्रपति की ज़िम्मेदारी तो महत्वपूर्ण है लेकिन जहां तक मेरी जानकारी है वेंकैया नायडू पहले इसके लिए अनिच्छुक ही थे, जब उन्हें पार्टी अध्यक्ष ने इसके बारे में बताया तो उन्होंने अनिच्छा जताई थी लेकिन अमित शाह ने उन्हें मना लिया."
रामबहादुर राय के मुताबिक वेंकैया नायडू को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने का फ़ैसला भी प्रधानमंत्री के स्तर पर लिया गया लगता है. वे कहते हैं, "बीते तीन साल में कामकाज के प्रति निष्ठा और अनुशासन से जिन मंत्रियों ने नरेंद्र मोदी के सामने अपनी दमदार छवि बनाई है, उनमें वेंकैया रहे हैं. यही वजह है कि उन्हें उनकी निष्ठा का सम्मान मिला है."
वहीं कुछ राजनीतिक विश्लेषकों की राय ये भी है कि वेंकैया नायडू की इच्छा थी कि उन्हें उपराष्ट्रपति का पद मिले और उनकी वफ़ादारी का इनाम उन्हें मिल गया. भारतीय जनता पार्टी को नज़दीक से कवर करते रहे वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं, "वेंकैया नायडू एक बड़े जनाधार वाले नेता तो नहीं हैं, वे संगठन और पार्टी के आदमी रहे हैं. ऐसे में बढ़ती उम्र के हिसाब से वे एक सम्मानित जगह चाहते थे और उन्होंने बीते कुछ सालों में जिस तरह से वे पार्टी नेतृत्व के प्रति वफ़ादार रहे हैं, उनका इनाम उन्हें मिला है."
मोदी के प्रति वफ़ादारी
वैसे ये जानना कम दिलचस्प नहीं है कि 2014 के आम चुनाव से पहले जब भारतीय जनता पार्टी के अंदर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने का जो तीन बड़े नेता विरोध कर रहे थे, उनमें वेंकैया नायडू भी एक थे.
ज़ाहिर है कि ये विरोध एक तरह से लालकृष्ण आडवाणी के समर्थन के लिए ही था, लेकिन इसी दौरान संघ के नेताओं से हुई कुछ मुलाकातों में वेंकैया नायडू ने नरेंद्र मोदी के प्रति बढ़ते समर्थन को भांप लिया और उनकी वफ़ादारी देखते देखते नरेंद्र मोदी के साथ हो गई.
उनकी वफ़ादारी पर नरेंद्र मोदी का भरोसा जमने की एक पुख़्ता वजह भी मौजूद रही है. गोवा में अप्रैल, 2002 में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को मोदी इतनी जल्दी नहीं भूले होंगे. तत्तकालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सामने ये वेंकैया नायडू थे जिन्होंने दमदार अंदाज़ में मोदी का पक्ष रखा था.
उस बैठक को कवर कर चुके वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार प्रदीप कौशल बताते हैं, "नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़े की पेशकश पर वाजपेयी जी ने कहा था कि देखते हैं, कल इस पर विचार करेंगे. तब वेंकैया नायडू ने कहा था कि क्या नरेंद्र भाई का इस्तीफ़ा 24 घंटे तक यहीं पड़ा रहेगा."
हालांकि तब वेंकैया नायडू ने जो किया था वो लाल कृष्ण आडवाणी की रणनीति के तहत ही किया था. लेकिन बाद में नरेंद्र मोदी के प्रति वफ़ादारी निभाने में भी उनसे चूक नहीं हुई.
मोडी मतलब मेकर ऑफ़ डेवलप्ड इंडिया
इस वफ़ादारी का अंदाज़ ऐसा रहा है कि मोदी को मोडी बोलने वाले वैंकया नायडू सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि मोडी मतलब- मेकर ऑफ़ डेवलप्ड इंडिया.
वैसे एक बड़ा सवाल ये भी उभरता है कि उपराष्ट्रपति के तौर पर वेंकैया को उम्मीदवार बनाना केवल उनकी वफ़ादारी का इनाम भर है?
वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार राधिका रामाशेषन ने बीबीसी से बताया है, "सरकार को उपराष्ट्रपति के तौर पर ऐसा आदमी चाहिए था जो राज्यसभा में सदन को ठीक ढंग से चला पाए. संसदीय कार्यमंत्री के तौर पर नायडू ये काम बख़ूबी कर चुके हैं. राज्यसभा में सरकार का बहुमत नहीं है ऐसे में नायडू उपयोगी साबित होंगे."
विजय त्रिवेदी के मुताबिक वैंकया नायडू की सभी पार्टी के नेताओं से ठीक ठाक संबंध हैं, इस लिहाज से राज्यसभा के सदन को सुचारू रूप से चलाने में उन्हें निश्चित तौर पर मदद मिलेगी.
वेंकैया नायडू के संकटमोचक वाली भूमिका की एक झलक तो उत्तर प्रदेश में हाल ही में मुख्यमंत्री के चुनाव के दौरान भी दिखी थी, जब पार्टी हाइकमान ने नायडू को लखनऊ भेजकर योगी आदित्यनाथ के नाम का एलान करवाया था.
दक्षिण में होगा फ़ायदा
लेकिन वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय की राय थोड़ी अलग है, वे कहते हैं, "राज्यसभा को चलाने की ज़िम्मेदारी कई वजहों में एक रही होगी, लेकिन उससे बड़ी वजह दक्षिण भारत में पार्टी का विस्तार की रणनीति रही होगी. सांकेतिक संदेश के साथ आंध्र प्रदेश बीजेपी में युवा नेता के लिए जगह भी बन गई है. युवा नेतृत्व को उभारने में पार्टी को इससे ज़्यादा मदद मिलेगी."
2002 से 2004 तक भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे वेंकैया ने अपना राजनीतिक सफ़र आंध्र प्रदेश के नेल्लूर के कॉलेज यूनियन चुनावों से किया था. 1971 में वीआर कॉलेज के छात्र संघ अध्यक्ष बनने के बाद दो साल के भीतर वे आंध्र विश्वविद्यालय छात्र संघ अध्यक्ष बन गए.
1974 में आंध्र प्रदेश में लोक नायक जय प्रकाश नारायाण छात्र संघर्ष समिति से जुड़ गए. आंध्र प्रदेश विधान सभा में वे 1978 से 1985 तक रहे. 1998 में वे कर्नाटक से राज्यसभा में पहुंचे और फिलहाल राजस्थान से राज्यसभा के सदस्य हैं. संगठन में भी उनका क़द बढ़ता रहा लेकिन वे लोकसभा के बजाए राज्यसभा से संसद में पहुंचते रहे.
नेल्लूर ऐसी जगह है जो कर्नाटक और आंध्र प्रदेश की सीमा पर पड़ता है ऐसे विजय त्रिवेदी का मानना है कि वैंकया नायडू को उपराष्ट्रपति बनाने से दोनों राज्यों में पार्टी समर्थकों के बीच अच्छा संदेश जाएगा.
वहीं राम बहादुर राय कहते हैं, "आंध्र प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी का युवा नेतृत्व इसलिए सामने नहीं आ रहा था कि क्यों बीते 20 साल से वहां का चेहरा नायडू बने हुए थे. अब दूसरों को मौका मिलेगा."
हालांकि नायडू की गिनती वैसे नेता के नहीं रही है जिनका कोई अपना व्यापक जनाधार रहा हो, लेकिन राम बहादुर राय कहते हैं, "नायडू ऐसे नेता रहे हैं, जिनका आधार बड़े जनाधार वाले नेताओं में हमेशा रहा है."