तो क्या निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह के भीतर जा पाएंगी महिलाएं?
दरगाह परिसर में ही मौजूद सिमरन ने कहा कि उनके लिए ये कोई मसला ही नहीं है. वो कहती हैं, "मैं यहां फ़ातिहा पढ़ने आई हूं, क़ानून पढ़ने नहीं."
फ़िलहाल इस मामले पर हाई कोर्ट ने दिल्ली सरकार समेत सभी पार्टियों से जवाब मांगा है, इस मामले की अगली सुनवाई 11 अप्रैल 2019 को होगी.
"पैग़ंबर अब्राहम तब तक अपना खाना नहीं खाते थे जब तक उनके साथ खाने के लिए कोई और न बैठा हो. कई बार तो वो साथ खाने वाले की तलाश में मीलों दूर तक चले जाया करते थे. एक बार उनके साथ एक ऐसा शख़्स था जो बहुत से धर्मों को मानता था. पैग़ंबर को उसे खाने के लिए पूछने में हिचकिचाहट हो रही थी. तभी एक दिव्य वाणी ने उनसे कहा- हे अब्राहम! हम इस शख़्स को ज़िंदगी दे सकते हैं लेकिन तुम इसे खाना नहीं दे सकते."
"अब आप ही बताइए जब ख़ुदा बंदे में फ़र्क़ करने से मना करता है तो क्या मर्द और औरत में फ़र्क़ करना ठीक है...? ये ठीक नहीं है और इसीलिए हमने जनहित याचिका डाली है."
पुणे से दिल्ली आई तीन सहेलियों ने हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया दरगाह के भीतर महिलाओं को प्रवेश नहीं दिए जाने के नियम को चुनौती देते हुए जनहित याचिका डाली है.
उनका कहना है कि जब भीतर मर्द जा सकते हैं तो औरतें क्यों नहीं.
एक ओर इन लड़कियों की दलीलें ,हैं वहीं दरगाह अपनी कई सौ सालों पुरानी परंपराओं का हवाला देती है और इसे जायज़ ठहराती है.
कौन हैं ये तीन लड़कियां?
शिवांगी कुमारी, दीबा फ़रयाल और अनुकृति सुगम पुणे के बालाजी लॉ कॉलेज में बीए (एलएलबी) की चौथे साल की स्टूडेंट्स हैं.
हालांकि तीनों ही मूलरूप से झारखण्ड की रहने वाली हैं और पुणे में रहकर वकालत की पढ़ाई कर रही हैं. तीनों इंटर्नशिप करने दिल्ली आई हुई थीं. हाईकोर्ट के अधिवक्ता कमलेश कुमार मिश्रा के साथ तीनों सहेलियां इंटर्नशिप कर रही थीं.
दीबा और अनुकृति पुणे वापस लौट चुकी हैं और शिवांगी अभी दिल्ली में ही हैं. वो बताती हैं, "हम तो यूं ही घूमने चले गए थे. हमें तो ख़ुद भी अंदाज़ा नहीं था कि ऐसा कुछ हो जाएगा."
दरगाह में ऐसा क्या हुआ?
यह मामला 27 नवंबर का है.
शिवांगी बताती हैं, "दोपहर का समय था. हम तीनों अपने दो और दोस्तों के साथ दरगाह गए थे. हमने दरगाह पर चढ़ाने के लिए चादर ख़रीदी और फूल वाली थाली ली...लेकिन चढ़ा नहीं सके."
"हम जैसे ही दरगाह के भीतर घुसने को हुए, सामने एक तख़्ती पर लिखा दिख गया कि औरतों का अंदर जाना मना है."
दीबा से हमने फ़ोन पर बात की.
वो कहती हैं, "हमें अंदर जाने से रोक दिया गया. ये बहुत ही बुरा था. मैं हाजी अली दरगाह गई हूं, अजमेर शरीफ़ दरगाह गई हूं लेकिन वहां तो कभी नहीं रोका गया फिर यहां क्यों रोका जा रहा है. ये ग़लत है. कोई हमें इबादत से कैसे रोक सकता है."
दीबा की बात को ही आगे बढ़ाते हुए शिवांगी कहती हैं, "मैं हज़ारीबाग़ की रहने वाली हैं वहां भी एक मज़ार है लेकिन वहां कभी भी अंदर जाने से नहीं रोका गया था."
वो कहती हैं, "सोचकर देखिए कितना ख़राब लगता है कि चढ़ाने के लिए फूल की थाली-चादर आपने ख़रीदी लेकिन उसे चढ़ाएगा कोई और..."
लेकिन दरगाह की अपनी दलीलें हैं.
दरगाह की देखभाल करने वाले कहते हैं कि पहली बात तो ये वो जगह ही नहीं है जहां किसी के साथ भेद-भाव किया जाए. ये वो जगह है जहां जितने मुसलमान आते हैं उतने ही हिंदू, सिख, ईसाई और दूसरे धर्मों को मानने वाले भी आते हैं.
दरगाह से ताल्लुक़ रखने वाले अल्तमश निज़ामी बताते हैं कि पहली बात तो ये कि यहां औरतों को लेकर कोई भेदभाव नहीं है. बल्कि औरतें बैठकर फ़ातिहा पढ़ सकें इसका ख़याल रखते हुए दरगाह की बीस दरी के एक बड़े हिस्से को सिर्फ़ महिलाओं के लिए रखा गया है.
वो कहते हैं, "यहां इबादत का जो तरीक़ा है वो नया तो है नहीं बल्कि 700 साल से भी पुराना है. चाहे कोई भी दरगाह हो वहां ऐसी व्यवस्था होती ही है कि वली की क़ब्र से सवा मीटर या दो मीटर की दूरी से ही लोग दर्शन करें."
"आप अजमेर शरीफ़ दरगाह की बात करती हैं लेकिन वहां भी तो लोग क़रीब दो मीटर की दूरी से ही दर्शन करते हैं. "
अल्तमश के साथ ही बैठे एक शख़्स ने बात को आगे बढ़ते हुए कहा, "देखिए हर जगह की अपनी परंपराएं होती हैं, अपने तरीक़े होते हैं और अपने प्रोटोकॉल होते हैं. बहुत सी दरगाहें ऐसी होती हैं जहां औरत हो या मर्द कोई नहीं जा सकता. बहुत सी ऐसी होती हैं जहां दोनों जा सकते हैं और कुछ ऐसी भी हैं जहां मर्द नहीं जा सकते."
वो बताते हैं कि बख़्तियार काकी की दरगाह के पीछे बीबी साहिब की मज़ार है, जहां मर्द क्या लड़के भी नहीं जा सकते.
अल्तमश बताते हैं, "हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया औरतों से पर्दे के एक ओर से मिलते थे."
ऐसे में उनकी दलील है कि दरगाह पर इबादत की या दर्शन की जो परंपराएं हैं वो किसी ने यूं ही नहीं बना दी हैं, ये सालों से हैं और इनके पीछे आला वजहें हैं, जिन्हें ग़लत नहीं ठहराया जाना चाहिए.
इतिहासकार राना सफ़वी भी इस बात का समर्थन करती हैं कि निज़ामुद्दीन औलिया दरगाह में ऐसा कभी नहीं हुआ कि औरतें अंदर जाएं. हालांकि ये सही है या ग़लत...इस पर वो कुछ भी नहीं कहती हैं. उनका मानना है कि मामला कोर्ट के अधीन है तो उसे ही फ़ैसला सुनाने का हक़ है.
लेकिन शिवांगी, दीबा और अनुकृति की याचिका महिलाओं को प्रवेश नहीं देने को अधिकारों का हनन और क़ानून का उल्लंघन मानती हैं.
उन्होंने अपनी याचिका में हाजी अली और सबरीमला मंदिर को दलील के तौर पर रखा है.
हाजी अली में भी महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध था जिसे दो महिलाओं ने मुंबई हाईकोर्ट में चुनौती दी थी. इस पर फ़ैसला सुनाते हुए कोर्ट ने कहा था, "हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर लगाया गया बैन भारत के संविधान की धारा 14, 15, 19 और 25 का उल्लंघन है."
इसके बाद से दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर लगी पाबंदी को हटा लिया गया.
निज़ामुद्दीन औलिया में महिलाओं के प्रवेश की पाबंदी के विरोध में डाली गई याचिका में कहा गया है कि दरगाह पर जिन नियमों का पालन किया जा रहा है वो दरगाह ट्रस्ट के बनाए हुए हैं और उनका किसी भी जगह लिखित प्रमाण नहीं है.
जबकि अल्तमश का कहना है कि दरगाह का कोई ट्रस्ट है ही नहीं.
वो कहते हैं, "दरगाह को कोई ट्रस्ट नहीं चलाता. हालांकि इंटरनेट पर बहुत से ऐसी वेबसाइट्स हैं जो ट्रस्ट होने का दावा करती हैं लेकिन वो फ़र्ज़ी हैं. दरगाह को अंजुमन पीरज़ादगान निज़ामिया ख़ुसरवी देखते हैं."
इस मामले में याचिका दायर करने वाले एडवोकेट कमलेश मिश्रा ने दिल्ली सरकार, दिल्ली पुलिस कमिश्नर, हज़रत निज़ामुद्दीन थाने के एसएचओ और दरगाह ट्रस्ट को पार्टी बनाया है.
"याचिका दायर करने से पहले डर था"
शिवांगी कहती हैं, "जब हम वहां से लौटे तो बहुत अजीब महसूस हो रहा था. हमने बहुत देर तक इस पर चर्चा की. इसके बारे में पढ़ाई की तो जाना कि ये कोई धार्मिक क़ानून नहीं है, क्योंकि ऐसा किसी भी धार्मिक किताब में नहीं लिखा है."
वो कहती हैं, "हमने पीआईएल डालने की सोची लेकिन डर लग रहा था कि कहीं हमारे साथ कुछ ग़लत न हो जाए. लोग धमकी न देना शुरू कर दें. हमारा करियर न प्रभावित हो जाए लेकिन फिर लगा कि हम ग़लत तो कुछ भी नहीं कर रहे फिर डरें क्यों... "
कमलेश का तर्क है कि किसी भी धार्मिक जगह पर लिंग भेद करना संविधान के विरूद्ध है.
वो कहते हैं कि निज़ामुद्दीन दरगाह एक सार्वजनिक स्थल है, जहां कोई भी अपनी मर्ज़ी से जा सकता है. ऐसे में महिलाओं को रोकना ग़लत है.
हालांकि जब हमने दरगाह परिसर के बाहर फूल ख़रीद रही रौशन जहां से पूछा कि क्या उन्हें भी अजीब लगता है कि मज़ार पर औरतों को नहीं जाने दिया जाता तो उन्होंने कहा, "इसमें अजीब लगने वाला तो कुछ भी नहीं है. वो मज़ार है...माने क़ब्रिस्तान. क्या कभी देखा है कि कोई औरत क़ब्रिस्तान जाती हो, फिर यहां क्यों जाएगी."
दरगाह परिसर में ही मौजूद सिमरन ने कहा कि उनके लिए ये कोई मसला ही नहीं है. वो कहती हैं, "मैं यहां फ़ातिहा पढ़ने आई हूं, क़ानून पढ़ने नहीं."
फ़िलहाल इस मामले पर हाई कोर्ट ने दिल्ली सरकार समेत सभी पार्टियों से जवाब मांगा है, इस मामले की अगली सुनवाई 11 अप्रैल 2019 को होगी.