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रामनाथ गोयनका ने लिया था इंदिरा गांधी से लोहा

पत्रकारिता में रामनाथ गोयनका की गिनती साहसी अख़बार मालिकों में होती है. उनकी 113वीं जयंती पर रेहान फ़ज़ल की विवेचना.

By रेहान फ़ज़ल - बीबीसी संवाददाता
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रामनाथ गोयनका जैसे अख़बार मालिक आज की दुनिया में नहीं पाए जाते. प्रेस की आज़ादी के पैरोकार, बहुत बड़े देशभक्त, व्यवस्था विरोधी, जानेमाने संपादकों और यहाँ तक कि सरकार को भी अपनी उंगलियों पर नचाने वाले रामनाथ गोयनका ने कई टोपियां पहन रखी थी.

एक ख़ास शख़्स में जो विरोधाभास होते हैं, गोयनका उनकी नुमाइंदगी करते थे. एक ही अकेले समकालीन शख़्स से उनकी तुलना की जा सकती है, वो थे उर्दू के महान शायर फ़िराक़ गोरखपुरी. तमाम साहित्यिक आलोचकों से घिरे हुए फ़िराक़ अचानक अपने चेलों से बावर्चीख़ाने से गायब हो गई गाजरों और आलुओं पर उलझ जाते थे.

लेकिन थोड़ी देर बाद वो फिर से रूमानी शायरी और वर्ड्सवर्थ और शेली की कविताओं के बारीक फ़र्क पर अपना प्रवचन शुरू कर देते थे. इसी तरह रामनाथ गोयनका भी अपने सब एडिटर की 100 रुपए तन्ख़वाह बढ़ाने में हील हुज्जत करते थे, लेकिन दूसरी ओर वही गोयनका, फ़्रैंक मोरेस और एस मुलगाँवकर जैसे अपने पसंदीदा संपादकों को बादशाह की तरह रखने में असीम आनंद का अनुभव भी करते थे.

चंपारण में गांधी का कमाल...

जब पीलू ने कहा, 'I am a CIA Agent'

इंडियन एक्सप्रेस के मद्रास संस्करण के संपादक रहे सईद नकवी याद करते हैं, ''रामनाथ गोयनका और फ़िराक़ गोरखपुरी दोनों में बहुत चतुराई थी और दोनों ही मानव मनोविज्ञान को बख़ूबी समझते थे. साथ ही दोनों बहुत मासूम और बहुत भोले भी थे. हर आदमी के व्यक्तित्व में कई परतें होती हैं. रामनाथ गोयनका में भी वो थीं. उनको ये शौक था कि उनके दाएं बाएं बहुत ख़ूबसूरत लड़कियाँ हो."

सईद नक़वी के साथ रेहान फ़ज़ल
BBC
सईद नक़वी के साथ रेहान फ़ज़ल

"लिहाज़ा उनके सेक्रेटेरी राघवन का काम ये था कि जब वो सिनेमा देखने के लिए जाएं, तो छह अदद कोकाकोला की बोतलें स्ट्रॉ डाल कर लाएं, क्योंकि तीन लड़कियाँ उनके इधर बैठी होंगी और तीन उनके उधर. रामनाथ गोयनका से अच्छा दोस्त कोई नहीं हो सकता था और न ही उनसे बुरा कोई दुश्मन. रामनाथजी, नानाजी देशमुख की मदद करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे. लेकिन जब वो इंदिरा गांधी के पीछे पड़े तो उन्होंने ये तय कर लिया कि उन्हें सियासी तौर पर बिल्कुल रफ़ा-दफ़ा कर देना है."

जितने कंजूस, उतने ही दरियादिल

गोयनका के बारे में मशहूर था कि वो फ़िज़ूलख़र्ची के बिल्कुल ख़िलाफ़ थे. अनावश्यक पैसा ख़र्च करना वो पाप समझते थे.

गोयनका पर किताब लिखने वाली अनन्या गोयनका बताती हैं, ''एक बार मुंबई के उनके पेंटहाउस में कई मेहमान ठहरे हुए थे. इसलिए मुंबई के दौरे पर गए उनके दोस्त और जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी ने ठहरने के लिए ओबेरॉय होटल में एक कमरा ले लिया. जैसे ही गोयनका को इसके बारे में पता चला, उन्होंने प्रभाष जोशी से कहा कि वो होटल से तुरंत चेक आउट कर लें. उन्होंने अपने खुद के कमरे में एक फ़ोल्डिंग पलंग डलवाया और उस पर प्रभाष जोशी को सुलवाया. उनकी कंजूसी के और भी किस्से मशहूर हैं.''

इंदिरा गांधी और नेहरू
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इंदिरा गांधी और नेहरू

आठ वर्षों तक उनकी निजी सचिव रही रेणु शर्मा बताती हैं, ''वो सुबह बहुत जल्दी उठते थे. जितनी भी लॉन्ग डिस्टेंस कॉल होती थी वो आठ बजे से पहले कर लिया करते थे क्योंकि उन दिनों आठ बजे से पहले फ़ोन करने पर एक चौथाई रेट लिया जाता था. लेकिन साथ ही गोयनका दरियादिल भी थे. जब एक्सप्रेस की इमारत बन रही थी तो उन्होंने आदेश दिया था कि रोज़ एक बोरी आलू खरीदा जाए और उसकी पूड़ी सब्ज़ी बनवा कर मज़दूरों के बच्चों को खिलाया जाए.''

नेहरू के दोस्त इंदिरा के दुश्मन

इस बात की लोगों को जानकारी कम है कि जवाहरलाल नेहरू के इशारे पर रामनाथ गोयनका ने उनके दामाद फ़िरोज़ गांधी को अपने अख़बार में जनरल मैनेजर की नौकरी दी थी.

सईद नक़वी बताते हैं, "इंदिरा और फ़िरोज़ की शादी बहुत ज़्यादा कामयाब शादी नहीं थी. वो नहीं चाहती थीं कि वो प्रधानमंत्री के घर में रहें. एक दिन पंडितजी ने इशारतन गोयनका से कहा कि फ़िरोज़ के लिए कुछ करिए. उन्होंने उन्हें जनरल मैनेजर बना दिया. जब ये बात इंदिरा गांधी तक पहुंची तो एक दिन उस ज़माने में नेहरू के सचिव मथाई ने उन्हें बुलवा भेजा. उन्होंने इशारा किया कि फ़िरोज़ को नौकरी न दो."

"इन्होंने फ़िरोज़ गाँधी का नियुक्ति पत्र रद्द कर दिया. इसके कुछ दिन बाद जब ये पंडितजी से मिले तो उन्होंने इनसे बात तक नहीं की. गोयनका जी ने मुझे बताया कि उनकी समझ में बात आ गई थी कि इंदिरा ने मथाई के ज़रिए फ़िरोज़ को इंडियन एक्सप्रेस से बाहर निकलवाया था, लेकिन वो ये बात जवाहरलाल से कैसे कहते?''

फ़ैसला जो भारी पड़ा इंदिरा गांधी पर...

सईद नकवी के इंडियन एक्सप्रेस में आने और रामनाथ गोयनका के करीब आने की भी दिलचस्प कहानी है.

नकवी बताते हैं, "जयप्रकाशजी हम पर बहुत मेहरबान थे. 1969 में ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार खाँ भारत आए थे. स्टेट्समैन ने मुझे उनका प्रेस अटाशे बना दिया था. मेरी बहुत कम उम्र थी. जेपी भी उस यात्रा में काफ़ी दिलचस्पी ले रहे थे. मैं जेपी के करीब आ गया. वो जो भी वक्तव्य देते थे, मुझसे क्लियर करवाते थे. गोयनका चाहते थे कि बिहार आंदोलन के जितने भी स्कूप्स हों, वो इंडियन एक्सप्रेस में ही छपें."

"जबकि मेरी वजह से वो स्टेट्समैन में छप रहे थे. गोयनका इस बात से बहुत नाराज़ भी हुए और प्रभावित भी. उन्होंने गांधी शाँति प्रतिष्ठान के सचिव राधाकृष्णन से कहा कि सईद नकवी से मिलवाओ. उन्होंने मुझे अपने घर बुलवा लिया. देखता क्या हूँ कि गोयनका भी वहाँ चले आ रहे हैं. वो सीधे मुख्य बिंदु पर आए और बोले 'लुक हियर, लुक हियर, यू विल लुक आफ़्टर द प्राइम मिनिस्टर ऑफ़िस, अटल एंड बाबू जगजीवन राम."

"मैं दिल में सोच रहा था कि मुलगाँवकर जैसे शक्तिशाली संपादक, कुलदीप नैयर जैसे एक्सप्रेस न्यूज़ सर्विस के संपादक और उनके नीचे अजित भट्टाचार्जी और एच के दुआ को कानोंकान ख़बर नहीं हुई और आपने मुझे इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी सौंप दी. इस तरह बैठे-बैठे यूँ ही पाँच मिनट के अंदर इंडियन एक्सप्रेस में मेरी नियुक्ति हो गई. उन्होंने अगले दिन मुझे अपने ऑफ़िस आने के लिए कहा. मैं वहाँ गया. वो अंडरवियर नहीं पहनते थे. लंगोट बाँधा करते थे. वो दीवार की तरफ़ मुंह करके लंगोट बाँध रहे थे. मैं और कुलदीप नैयर उनके पीछे खड़े हुए थे. उन्होंने वहीं घोषणा की, 'कुलदीप आई थिंक वी शुड गिव हिम पीएमओ, अटल एंड जगजीवन राम.''

जब मोरारजी ने कहा, 'जेपी कोई गांधी हैं क्या'

ये तो रही नकवी की नियुक्ति की कहानी. लेकिन कभी आपने सुना है कि एक अख़बार का मालिक, अपने संवादादाता को अपनी कार में बैठाकर प्रधानमंत्री के निवास ले जाए ?

नकवी बताते हैं, ''वैसे तो उनके पास सत्तर के मॉडल की पुरानी फ़िएट गाड़ी थी, जिसे वो खुद चलाया करते थे. लेकिन औपचारिक मौकों पर वो अपनी पुरानी स्टूडीबेकर कार निकालते थे, जिसकी अपहोल्स्ट्री खादी की हुआ करती थी. मुझे इस बात की शर्मिंदगी थी कि मैं उम्र में बहुत कम था, इसलिए मैंने थोड़ा गंभीर दिखने के लिए एक चश्मा ख़रीदा. प्रधानमंत्री मोरारजी के निवास पर पहुंच कर उन्होंने मुझे पहले उनके सचिव टोंपे से मिलवाया. फिर वो मोरारजी देसाई के कमरे में दाखिल हुए. सामने मोरारजी एक तख़्त पर बैठे हुए थे. मैं देखता क्या हूँ कि गोयनकाजी ने आव देखा न ताव मोरारजी के चरणों पर दंडवत लेट गए. फिर वो उठे और बोले, ' मोरारजी भाई मीट नकवी. ही विल कवर योर ऑफिस.' और फिर मेरी तरफ़ पलट कर बोले, "यू मे गो नाऊ.''

इमरजेंसी में नहीं झुके गोयनका

रामनाथ गोयनका के करियर का स्वर्णिम क्षण था इमरजेंसी. उन्होंने सरकार के भारी दबाव के बावजूद अपना सिर नहीं झुकाया और प्रेस की आज़ादी के लिए लगातार लड़ते रहे.

गोयनका की जीवनी 'रामनाथ गोयनका-ए लाइफ़ इन ब्लैक एंड वाइट' लिखने वाली अनन्या गोयनका बताती हैं, ''किसी भी अख़बार को चलाने के लिए सबसे अधिक ज़रूरी होता है विज्ञापन. इंडियन एक्सप्रेस को दिए जाने वाले सारे विज्ञापन बंद कर दिए गए. इस तरह अख़बार की वित्तीय जीवन रेखा एक तरह से रुक सी गई. अख़बार छपने के समय वो प्रिटिंग प्रेस की बत्ती काट दिया करते थे जिसकी वजह से अख़बार समय से लोगों के पास नहीं पहुंच पाता था."

"उन्होंने दबाव की हद उस समय पार कर दी जब उन्होंने कहा कि गोयनकाजी अपने अख़बार का संपादक बदल दें. फिर उन्होंने सेंसरशिप लगवा दी लेकिन नानाजी ने उनका कहना मानने के बजाए सेंसर की गई ख़बर का स्थान ख़ाली रखा. दुनिया में पहले कभी सेंसरशिप के ख़िलाफ़ इस तरह का विरोध नहीं प्रकट किया गया था.''

संजय गांधी की मौत पर इंदिरा को लिखी चिट्ठी

इंदिरा गाँधी से इतना विरोध होने के बावजूद जब उनके बेटे संजय गांधी की मौत हुई तो उन्होंने न सिर्फ़ उन्हें एक मार्मिक पत्र लिखा बल्कि अपने अख़बार के पहले पन्ने पर खुद एक संपादकीय भी लिखा.

रेणु शर्मा याद करती हैं, ''जब संजय गांधी की मौत हुई तो उन्होंने इंदिरा गांधी को बहुत भावनात्मक पत्र लिखा. उस पत्र को लेकर मैं ही इंदिरा गाँधी के घर गई थी. उसमें उन्होंने लिखा कि उनके दुख को उनसे ज़्यादा कोई नहीं समझ सकता क्योंकि दो महीने पहले मैंने अपने बेटे बी डी गोयनका को खोया है. बहुत कम उम्र में मौत हो गई थी. बाद में उन्होंने इंदिरा गांधी को फ़ोन कर भी अपना शोक प्रकट किया.''

रेणु शर्मा बताती हैं, "एक बार इंदिरा गाँधी ने उन्हें रात्रि भोज पर बुलाया. मेरे पास ही प्रधानमंत्री निवास से फ़ोन आया. उस समय इनके इंदिरा के साथ बहुत खराब संबंध चल रहे थे. मैंने जा कर कहा कि दादाजी आपकी गर्ल फ़्रेंड का फ़ोन आया है. आपको खाने पर बुलाया है. वो बोले तूने ग़लत सुना होगा. बात करो दोबारा कहीं डंकन वाले गोयनका को तो नहीं बुलाया."

रेणू शर्मा
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रेणू शर्मा

"मैंने प्रधानमंत्री निवास फ़ोन कर दोबारा पूछा कि आपने इंडियन एक्सप्रेस वाले रामनाथ गोयनका को ही खाने पर बुलाया है न ? वो बोले जी हां हमने गोयनकाजी को ही बुलाया है. ये सुनते ही गोयनका जी बहुत खुश हो गए और मज़ाक में बोले लगता है वो दोबारा गर्ल फ़्रेंड बनने की कोशिश कर रही है. वो इंदिरा गांधी के यहाँ भोज पर गए. उन्होंने उन्हें खाने की मेज़ पर अपने बगल में बैठाया और वो सब चीज़ें परोसी जो आरएनजी को पसंद थीं.''

गोयनका के साथ फ़्रैंक मोरेस, निहाल सिंह, कुलदीप नैयर जैसे कई संपादकों ने काम किया, लेकिन उनके फ़ेवरेट थे एस मुलगाँवकर. वो उनके अंग्रेज़ी ज्ञान और उठने बैठने के तरीके के मुरीद थे और उनके साथ ब्रिज भी खेला करते थे.

अनन्या गोयनका बताती हैं, ''मुलगाँवकर गोयनकाजी के बहुत करीब थे. जब वो मुंबई आते थे तो पेंट हाउस में ठहरा करते थे. वो अकेले शख़्स थे जिनके लिए पेंट हाउस में मछली मंगाई जाती थी. गोयनकाजी के यहाँ मांसाहारी खाना खाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, लेकिन मुलगाँवकर के लिए गोयनका इस हद तक जा सकते थे, क्योंकि वो उन्हें बहुत प्यार करते थे..''

मुलगाँवकर के लिए गोयनका का स्नेह इतना अधिक था कि जिस दिन आपातकाल हटाया गया, उसी दिन वो अपने दोस्त और पूर्व संपादक मुलगाँवकर के साथ हुई बेइंसाफ़ी को दुरुस्त करने में जुट गए.

कूमी कपूर अपनी किताब 'इमरजेंसी ' में लिखती हैं, ''उन्होंने तुरंत मुलगाँवकर को इंडियन एक्सप्रेस चेन का एडिटर-इन-चीफ़ नियुक्त कर दिया. लेकिन वो इस फ़ैसले की ख़बर तत्कालीन संपादक वी के नरसिम्हन को देना भूल गए. जब नरसिम्हन अपने कमरे में घुसे तो उन्होंने मुलगाँवकर को अपनी कुर्सी पर बैठे पाया. वो इतने व्यथित हुए कि उलटे पांव लौट गए और फिर कभी वापस नहीं आए. बाद में गोयनका ने उन्हें फ़ाइनेंशियल एक्सप्रेस का संपादक बनने का ऑफ़र भी दिया, लेकिन नरसिम्हन ने उसे स्वीकार नहीं किया.''

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English summary
Ramnath Goenka faces Indira Gandhi for press freedom
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