म्यांमार में सेल्फी खींचने में व्यस्त हुए मोदी भूले बहादुर शाह जफर को!
नई दिल्ली (विवेक शुक्ला)। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी म्यांमार पहुंचे तो वहां की इमारतों को देख इतने प्रसन्न हो गये कि सेल्फी खींचने लगे। उनके द्वारा खींची गई तस्वीरें इंस्टग्राम, ट्विटर और फेसबुक पर जमकर वायरल हो गईं। खैर यह अच्छा भी है, क्योंकि इससे यह पता चलता है कि देश के प्रधानमंत्री कितने एक्टिव हैं, लेकिन अफसोस इस व्यस्तता के बीच मोदी साहब मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर को भूल गये।
मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी इंसाफ नहीं दिलवा पाए। वे आजकल विदेश यात्रा पर है। इस क्रम में वे कल म्यांमार में थे। वहां के नेताओं से उन्होंने मुलाकात की। पर, वे मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर की मजार पर नहीं गए। इसकी वजह किसी को मालूम नहीं। साल 2012 में मनमोहन सिंह ने म्यांमार की यात्रा के समय बहादुर शाह जफर की कब्र पर जाकर हाजिरी दी थी।
म्यांमार में दफन किया था
बता दें कि बहादुर शाह जफर को 7 अक्टूबर 1857 को गिरफ्तार करके रंगून रवाना किया गया था। उन्हें 1857 की बगावत की कीमत अदा करनी पड़ी थी। जिस बादशाह के पूर्वजों ने बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं के तख्ते पलट दिए। उनकी सेनाओं और महलों को नेस्तानाबूत कर दिया, उसी अंतिम मुगल बादशाह को अंग्रेजों ने उसके परिवार-बेगमों, रखैलों, नौकरों समेत सभी को बैलगाड़ियों पर बैठाकर रंगून के लिए रवाना कर दिया था।
दफनाने की जगह चुनी थी
वरिष्ठ पत्रकार विनम्र के अनुसार, बहादुरशाह जफर ने अपने दफनाने का स्थान चुन रखा था। वे चाहते थे कि उन्हें दिल्ली के महरौली में कुतुबुद्दीन बख्तियार की दरगाह के पास दफनाया जाए। उन्होंने इसके लिए दो गज जगह की भी निशानदेही कर रखी थी। ब्रिटिश हुकुमत बहुत चालाक थी। उसने हिंदुस्तान के बादशाह को गिरफ्तार करके रंगून भेज दिया ।
बहादुर शाह जफर गुमनामी की जिंदगी जीते हुए नवंबर 1862 में दुनिया से विदा हुए। विनम्र के अनुसार, बहादुरशाह जफर कोएक गुमनाम जगह पर दफनाने के बाद उसके आसपास बांसों की बाड़ लगा दी गई। बाद में वहां काफी झाड़ियां उग आई और यह कब्र लगभग लापता ही हो गई। बर्मा सरकार ने 1991 में इसकी खोज व रखरखाव का काम शुरु किया और तब ईंटों के नीचे दबी कब्र का पता चला।
बहादुर शाह के अवशेष
कुछ साल पहले बहादुरशाह जफर के अवशेष भारत वापस लाने की मुहिम चली थी। इस काम में पत्रकार कुलदीप नैय्यर, सईद नकवी, शम्सुल इस्लाम सरीखी हस्तियां शामिल थे। ये चाहते थे कि आजादी की पहली लड़ाई के 150 साल पूरे होने पर बहादुर शाह जफर के अवशेष स्वदेश लाए जाएं। इसके लिए 2006 में पहल की गई थी।
तत्कालीन यूपीए सरकार से संपर्क साधा गया। मनमोहन सिंह ने अपने घर पर इतिहासकारों, बुद्धिजीवियों, साहित्यकर्मियों की बैठक बुलवाई। इसमें यह कहा गया कि अब तो बहादुर शाह जफर को इंसाफ मिलना ही चाहिए। इसके लिए समिति भी बनी पर उन्हें लाए बिना ही आजादी की पहली जंग के 150 साल मना लिए गए। बेहतर होता कि मोदी म्यांमार में बहादुर शाह जफर की अस्थियों को भारत में लाने के संबंध में बात करते। पर, यह हो ना सका।