कभी IAS की फैक्ट्री थी ये यूनिवर्सिटी, अब मिट रही है साख
कभी आईएएस की फैक्ट्री के नाम से विख्यात इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय अपनी साख खोता जा रहा है।
नई दिल्ली। एक वक्त था जब उत्तर प्रदेश स्थित इलाहाबाद विश्वविद्यालय को पूरब का ऑक्सफोर्ड कहा जाता था।
इतना ही नहीं जब कभी भी भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) के परीक्षा परिणाम आते थे तो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों के नाम बड़ी संख्या में होते थे।
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जिसके कारण विश्वविद्यालय को आईएएस की फैक्ट्री भी कहा जाने लगा था लेकिन यहां अब ऐसा कुछ नहीं बचा है।
कभी होता था दबदबा
2010 तक के आंकड़ों को देखें तो आईएएस के परीक्षा परिणामों में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने वाले या यहां से पढ़ चुके छात्रों का दबदबा होता था।
देखा जाए तो 1990 के शुरूआती दौर तक में यहां से पढ़ने वाले छात्र बड़ी संख्या में आईएएस परीक्षा पास कर भारतीय नौकरशाही का हिस्सा बनते थे।
यहां तक कि सन् 2008 में यहां से आईएएस में 26 छात्रों का चयन हुआ था। जिसके कारण विश्वविद्यालय देशभर के 152 शिक्षण संस्थाओं में चौथा स्थान पाने में कामयाब था।
एक साल बाद यानी 2009 में यह संख्या घट कर 25 हुई और 170 संस्थानों में विश्वविद्यालय को 5वां स्थान मिला। 2010 में विश्वविद्यालय से 21 छात्रों का चयन हुआ और इसकी रैकिंग 171 संस्थानों में 8वें स्थान तक पहुंच गई।
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2011 से हालात होने लगे खराब
हालात 2011 से खराब होना शुरू हुए। 2011 में केवल 7 चयन हुए और विश्वविद्यालय 37 वें स्थान पर पहुंच गया।
2012 में 6 चयनों के साथ विश्वविद्यालय की रैंक 41वीं हो गई। 2013 में तो एक भी चयन नहीं हुआ। 2011 के बाद से ऐसा क्या हुआ जो विश्वविद्यालय की हालत खराब होती चली गई?
2005 में केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा पाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय, जिसका 130 साल पुराना इतिहास है और जिसने देश को बड़े से बड़ा प्रतिष्ठित अधिकारी दिया, वहां बीते दशक से ऐसा क्या हो गया?
1887 में स्थापित विश्वविद्यालय से आईएएस अधिकारियों के न निकल पाने के बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि समस्या 2011 से शुरू हुई जब एप्टीट्यूड टेस्ट की वजह से अंग्रेजी को परीक्षा का महत्वपूर्ण भाग बना दिया, जिस पर विश्वविद्यालय ने बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया।
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जब छात्र ये सब पढ़ने आते थे
अभी बहुत दिन नहीं बीते हैं जब छात्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, इतिहास और बाकी विषय पढ़ने के लिए आते थे। उस वक्त विश्वविद्यालय से लगातार नौकरशाह निकलते रहे जो आगे चल बड़े स्तर पर पहुंचे।
बतौर उदाहरण ए एन हक्सर (तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रमुख सचिव), नृपेंद्र मिश्रा (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रमुख सचिव), एन.सी सक्सेना (योजना आयोग के पूर्व सदस्य) और विकास स्वरूप (मौजूदा प्रवक्ता, विदेश मंत्रालय, भारत सरकार) का नाम शामिल है।
वास्तव मे देखा जाए तो विश्वविद्यालय ने 2010 तक अपनी साख बचाए रखी थी लेकिन उसके बाद हालात खराब होते चले गए।
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जब अलग हो गया MNNIT
2008 में मोतीलाल नेहरू राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (MNNIT)को विश्वविद्यालय से अलग कर दिया गया, जहां से बड़ी संख्या में आईएएस पास हो कर निकलते थे।
संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) की ओर से जारी की गई रिपोर्ट के मुताबिक 2014-15 में MNNIT से 16 छात्रों ने आईएएस परीक्षा क्लियर की। 2013 में यह संख्या 10 थी।
इसके परिणाम स्वरूप 57 उच्च शिक्षण संस्थानों की सूची में MNNIT 31वें स्थान पर है।
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प्रौद्योगिकी संस्थान विश्वविद्यालय को छोड़ रहे हैं पीछे
UPSC की रिपोर्ट के अनुसार इलाहाबाद में प्रौद्योगिकी संस्थान न केवल अपनी जगह टॉप 50 में बना रहे हैं बल्कि विश्वविद्यालय को भी पीछे छोड़ रहे हैं।
2013 में इलाहाबाद के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIIT-A) के 5 छात्रों ने आईएएस में अपनी जगह बनाई थी।
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अंग्रेजी है राह में रोड़ा!
2011 में जब आईएएस की परीक्षा का नया पैटर्न आया तो उसमें अंग्रेजी महत्वपूर्ण विषय हो गया। आईएएस के उम्मीदवार C-SAT पर भी आरोप मढ़ रहे हैं।
उनका कहना है कि अंग्रेजी के कारण विश्वविद्यालय के छात्रों को मुश्किल हो रही है।
हालांकि विश्वविद्यालय से पढ़कर आईएएस में अपना परचम लहराने वाले पूर्व अधिकारियों का कहना है कि एक समय में विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में अंग्रेजी अनिवार्य विषय होता था।
लेकिन 1968 में हिंसात्मक अंग्रेजी विरोधी आंदोलन के कारण अंग्रेजी को अनिवार्य विषयों की सूची से हटा दिया गया।
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यहां मात खा जाते हैं छात्र
विश्वविद्यालय के प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी के मुताबिक यहां के छात्र पेपर के बदले हुए पैटर्न को अब तक नही समझ पाए हैं।
उनका कहना है कि छात्र पारंपरिक विषयों में तो आगे रहते हैं लेकिन C-SAT में मात खा जाते हैं।
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