रमज़ान में मोहब्बत का पैग़ाम देने वाले इश्तेहार
रमज़ान पर बने विज्ञापनों में लोगों को आकर्षित करने के लिए कंपनियों ने क्या किया है.
यह तपती गर्मी में सुकून देने वाली ठंडी बयार के माफ़िक है. यह बयार इश्तेहार की दुनिया से बह रही है.
पिछले एक-दो साल से रमज़ान के वक़्त हमारे टेलीविज़न चैनलों पर ज़़रा हटकर कुछ इश्तेहार दिखाई देने लगे हैं. यह रमज़ान के मौके के लिए ख़ासतौर पर तैयार किए गए हैं.
ज़ाहिर है, ये कम्पनियों के इश्तेहार हैं पर इनमें कुछ ऐसा है जो बरबस ध्यान खींच लेता है, रोक लेता है. ऐसे ही चंद रमज़ान के इश्तेहार से रूबरू होते हैं. मुलाहिज़ा फ़रमाएं.
नेकी से जुड़ेंगे दिलों के तार...
मग़रिब की अज़ान की आवाज़ आ रही है. अस्पताल में एक महिला डॉक्टर इफ़्तार के लिए हाथ में खजूर उठाती है. तब ही नर्स और एक बुज़ुर्ग महिला दौड़ते हुए आती है.
बताती हैं, इमरजेंसी है. बुज़ुर्ग महिला, डॉक्टर और उसके सामने इफ़्तारी का सामान देख कर थोड़ी दुविधा में पड़ती है.
डॉक्टर बस एक खजूर मुंह में डालती है और एक घूंट पानी पी कर उनके साथ ऑपरेशन थिएटर की ओर भागती है. जच्चगी ख़ैर खूबी से हो गई है. डॉक्टर दूसरे दिन जच्चा-बच्चा का हाल लेने वॉर्ड में पहुंचती है. सभी बहुत ख़ुश हैं. यह सिख परिवार लगता है.
कल तक दुविधा से देख रही बुज़ुर्ग महिला डॉक्टर से बड़े प्यार से बोलती हैं- 'कल तुसी सब छड्ड कर ...' डॉक्टर बीच में ही रोकते हुए कहती है- 'नहीं मांजी यह तो मेरा फ़र्ज़ था.'
तब ही अज़ान की आवाज़ सुनाई देती है. डॉक्टर इफ़्तार के लिए जाने लगती है तो बुज़ुर्ग कहती हैं- 'पुत्तर आज हमारे साथ ही ...' तब ही डॉक्टर अचरज से टेबल पर सजा इफ़्तार का सामान देखती है.
बुज़ुर्ग बोलती हैं, 'पहली बार सजाया है, शायद कोई कमी रह गई हो'. इस बीच, इफ़्तार करते हुए जब डॉक्टर बच्ची का नाम पूछती है तो पता चलता है कि इसका नाम हिना रखा गया है.
डॉक्टर का नाम भी हिना है. इश्तेहार का लब्बोलुआब है- 'नेकी से जुड़ेंगे दिलों के तार...' यह बिग बाज़ार का विज्ञापन है.
मजहब की दूरी. थोड़ा अजनीबपन. थोड़ा छवियों का बोझ. असमंजस इधर भी है और उधर भी. मगर नेकी सब पर भारी पड़ती है. नेकी का सिला दिल जोड़कर मिलता है. यही तो रमज़ान का मक़सद भी है.
' क्योंकि नेकी का कोई मज़हब नहीं होता '
एक और इश्तेहार देखते हैं. एक कम्पनी की मीटिंग हो रही है. बॉस कुछ बात कर रहा है. मीटिंग में शामिल एक नौजवान कभी घड़ी देख रहा है और कभी डूबते सूरज को.
बॉस को कुछ समझ में आता है. वह मीटिंग बीच में रोकता है. फिर एक थाली में इफ़्तारी का सामान आता है. नौजवान का चेहरा खिल जाता है.
इश्तेहार कहता है, 'रोज़ा खोलने के लिए खजूर अम्मी के हाथ से मिले या बॉस के ऑर्डर से- इफ़्तारी तो इफ़्तारी होती है क्योंकि नेकी का कोई मज़हब नहीं होता है. इस त्योहार पर ख़ुदा की रहमत हर दिल को छुए, यही हमारी दुआ है.'
यह रौस्ता खजूर का विज्ञापन है. इसलिए रौस्ता ने भी रमज़़ान में मदद का वादा किया है.
रमज़ान के कई मशहूर इश्तेहार ख़ासतौर पर पाकिस्तान और बांग्लादेश के लिए बने पर वे अब हर जगह दिखाए जा रहे हैं. दिलचस्प बात है कि इनमें से कई भारत की कम्पनियों ने यहीं बनाए हैं.
कई में तो यहीं के कलाकार भी हैं. यह रचनात्मक साझेदारी भी रमज़ानीके स्पिरीट को बताने के लिए काफ़ी है और सबसे बड़ी साझेदारी तो दर्शकों की है.
भले ही यह उन देशों के स्थानीय चैनल पर दिखाए जाते हों, पर इंटरनेट के मार्फ़त दर्शकों का बड़ा समूह इन्हें सभी मुल्क में देख रहा है. इनमें बड़ी तादाद भारतीय दर्शकों की है.
' ख़ुदा ने कहा, मिलूंगा वहां, है नेकी जहां '
सर्फ़ एक्सल ने रमज़ान के मौके पर दो विज्ञापन पिछले दिनों जारी किए. ये विज्ञापन ख़ासतौर पर पाकिस्तान के लिए हैं, लेकिन इसे भारतीय विज्ञापन कम्पनी ने बनाया है.
एक विज्ञापन पर नज़र डालते हैं. सेहरी के लिए भोर में एक बच्चा उठता है. तब ही उसे ध्यान आता है कि पड़ोस में रहने वाले एक बुजु़र्ग हैं जिन्हें सुनने में दिक्कत है.
वे सुनने के लिए मशीन लगाते हैं. अगर सोते वक़्त उनकी मशीन निकल गई होगी तो वे सहरी के लिए कैसे उठे होंगे. वह भागते हुए किसी तरह उनके घर पहुंचता है.
उनकी मशीन कान में लगाता है. उन्हें जगाता है. उन्हें सेहरी के लिए खाने का सामान भी देता है.
इसके साथ एक बेहतरीन गीत भी चलता है- 'मैंने पूछा ख़ुदा से कि तू मुझको मिलेगा कहां/ ख़ुदा ने कहा, मिलूंगा वहां, है नेकी जहां/ औरों का ख़्याल एक नेकी है/ तेरा अच्छा आमाल भी एक नेकी है.'
और तब पता चलता है कि 'ख़ुद को भुलाकर औरों को याद रखने में अगर दाग़ लग जाए तो दाग़ तो अच्छे हैं' यानी यह सर्फ़ एक्सेल का इश्तेहार है.
मगर आख़िरी लाइन ज़्यादा अहम है- 'इस रमज़ान आप भी अपने बच्चों को औरों का ख़्याल रखने की तरग़ीब दें.' शायद यही बात तो रमज़ान का महीना भी सिखाता है.
' मदद करना भी एक इबादत है '
इसी कम्पनी का एक और विज्ञापन है. इसमें समोसे और जलेबी बेचने वाले बुज़ुर्ग का ठेला गड्ढे में फंस जाता है. वह परेशान हैं क्योंकि इफ़्तारी का टाइम हो रहा है.
उनके सामान कैसे बिकेंगे. तब ही कुछ बच्चे उनके पास पहुंचते हैं. उनमें से एक उनकी मदद की तरकीब निकालता है. अपने कुर्ते में समोसे रख कर बेचने लगता है.
लोग उससे समोसे और जलेबी लेते हैं. बुजु़र्ग का सारा सामान देखते-देखते बिक जाता है.
बुजु़र्ग के दिल से आवाज़ निकलती है 'आज मेरी पेशानी पे किस्मत ने चूमा है/ माहे मुकद्दस में रौशन जहां है/ फरिश्तों ने आकर किया समा ख़ुशनुमा है.'
लेकिन इस काम में बच्चे का कपड़ा ख़राब हो जाता है. मगर जो संदेश है, वह बहुत साफ़ है- 'किसी की मदद करना भी एक इबादत है. मदद करने में दाग लग जाए तो दाग तो अच्छे हैं. इस रमज़ान आप भी अपने बच्चे को मदद करने की तरग़ीब दें.'
यह एक मां के दिल से निकली आवाज़ है. यह रमज़ान के जरिए इंसानियत का पैग़ाम देने की कोशिश है.
सर्फ़ एक्सेल के ये दोनों विज्ञापन यू ट्यूब पर मौजूद हैं. अलग-अलग लोगों ने भी साझा किया है. इसे अब तक लाखों लोग देख चुके हैं.
देखने वालों में बड़ी संख्या भारतीय लोगों की भी है. सभी इन्हें खूब सराह रहे हैं. इसकी बड़ी वजह शायद यह है कि इसने इंसानी रिश्तों की डोर पकड़ने और जोड़ने की कोशिश की है. वही इंसानी डोर जो हम अक्सर तोड़ने में जुटे रहते हैं.
इसी तरह टैंग शरबत का विज्ञापन है जिसकी लाइन है- मिल बांट कर खाने में ही बरकत है. तो कोई कम्पनी कह रही है-'अपनों से पहले दूसरों की खि़दमत करने वालों को सवाब मिलता है' तो कोई चाहता है, 'इस रमज़ान अंधेरे मिटाने में हमारा साथ दें.'
' मोहब्बत से नफ़रत को उड़ा दो... '
मगर, इन सबसे परे एक ख़़ास तरह का अरबी ज़बान में बना वीडियो इस वक्त खूब तहलका मचा रहा है. ख़ासतौर पर खाड़ी के देशों में इसे काफी शोहरत मिल रही है.
दो हफ्ते में इसे यूट्यूब पर 65 लाख से ज़्यादा लोग देख चुके हैं. यह आतंकवाद के ख़िलाफ़ कुवैती कम्पनी 'ज़ैन' का ख़ूबसूरत संदेश है.
एक आतंकी हमले के लिए तैयार हो रहा है और एक बच्चा कहता है कि 'मैं ख़ुदा को सब कुछ बताऊंगा... ख़ुदा को बताऊंगा कि किस तरह तुमने हमारे बच्चों से क़ब्रिस्तान भर दिया और हमारे स्कूल खाली कर दिए...' यह गीतों भरा वीडियो है.
इसमें अरब इलाके में आतंकी हमलों की छवियां आती-जाती हैं. यह नफ़रत को प्यार के गीत से जीतने की बात करता है. बेहतर ज़िंदगी के लिए उग्रवाद के खात्मे की बात करता है.
यह कहता है, 'हम उनके नफ़रत के हमलों का मोहब्बत के गीतों से मुक़ाबला करेंगे.'
हालांकि कुछ लोग इसके एक सीन के लिए इसकी आलोचना भी कर रहे हैं. मगर संदेश इतना मज़बूत है कि आलोचना बहुत असरदार होती नहीं दिखती है.
' इंसान को इंसान बनाए रखने की कोशिश है... '
ज़्यादातर इश्तेहार चंद सेकेंड में इंसानी ज़िंदगी की कथा कहने की कोशिश करते हैं. वे इसमें इंसान को इंसान बनाए रखने वाले तार तलाशते हैं और उन्हें बुनते हैं.
रमज़ान की रूह के जरिए इंसानियत को बचाए रखने के जज़्बे की ज़रूरत पर ध्यान दिलाते हैं. इश्तेहारों का आमतौर पर ज़ोर भावनाओं पर होता है.
इनमें भी भावनाओं का पक्ष काफ़ी मज़बूत है. इसलिए कई इश्तेहारों में तो कम्पनियां हावी नहीं हो पाती हैं. शायद यही इनकी कामयाबी का राज़ भी है. तब ही हम इनकी यहां चर्चा भी कर रहे हैं.
ये सभी विज्ञापन स्टीरियोटाइप यानी 'ख़ास तरह के खांचे में क़ैद कर दी गई मुसलमानों की तस्वीर' से अलग हैं. यह ज़िंदगी-समाज के हर क्षेत्र में दिखने वाले मुसलमान हैं, अलग-अलग काम करने वाले, अलग-अलग लिबास पहनने वाले. ये विज्ञापन छवियां तोड़ते हैं. नई छवियां गढ़ने की कोशिश करते हैं.
अपने-अपने मज़हबी दायरे से बाहर भी एक बड़ी दुनिया है. इस दुनिया में अलग-अलग मज़हब, यक़ीन और ख़्याल वाले बसते हैं. उस दुनिया में सिर्फ़ मज़हब के आधार पर बात नहीं होती है.
उसमें रिश्तों के कई और डोर हैं. ये विज्ञापन उन डोर को पकड़ने की कोशिश करते हैं. दुविधाएं सब तरफ़ हैं, ये उन्हें समझने और दूर करने की कोशिश करती हैं.
ये हर तरह की बहुलता वाले समाज में इंसानी रिश्ते की बुनियाद पहचानने की कोशिश करती हैं. रमज़ान की रूह- ये बातें करने का ज़रिया बनी हैं. इसलिए वे रमज़ान की रूह को पकड़ते हैं.
कई विज्ञापन जो ख़ास तौर पर पाकिस्तान या बांग्लादेश के लिए तैयार किए गए हैं... उनमें भी यही बात शिद्दत के साथ झलकती है. यानी बतौर मुसलमान, अहम क्या है.
इंसानियत से लबरेज़
दूसरे आपको बेहतर मुसलमान कैसे मानेंगे. बतौर मुसलमान आमाल क्या है... यानी किसी के साथ कैसा सुलूक या बर्ताव है.
यही नहीं, ज़िंदगी के अलग-अलग मोड़ पर बतौर मुसलमान वह इबादत को किस शक्ल में देखता/देखती है और मदद जैसे काम को इबादत समझ कर ही पूरा करता/करती है या नहीं?
कहने को बहुत आराम से कहा जा सकता है कि बाज़ार तो रमज़ान का इस्तेमाल कर रहा है. मगर सबसे अहम बात तो यह है कि रमज़ान के मौके पर जिस तरह के इंसानों की छवि वह बना रहा है, वह तस्वीर कैसी है.
रमज़ान के इस मौके पर उन इंसानों का व्यवहार कैसा है जो रोज़े से हैं और जो रोज़े से नहीं हैं. वे कैसे एक-दूसरे को समझने और जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं.
उनके समझने/जुड़ने की बुनियाद क्या है... ये सारी इंसानी तस्वीरें ख़ुशनुमा और इंसानियत से लबरेज़ नजर आती हैं.
इस लिहाज़ से देखा जाए तो ये इश्तेहार, मुसलमानों के लिए ही नहीं बल्कि सभी के लिए बहुत मायने रखते हैं. यानी बतौर इंसान और बतौर मज़हबी इंसान, उनका सुलूक दूसरे मज़हब/ख़्याल वालों के साथ कैसा होता है?
उनके साथ कैसा होता है, जो उनके रिश्तेदार नहीं हैं? उनके साथ कैसा होता है, जो आर्थिक रूप से उनके बराबर नहीं हैं? यह बात हर मज़हब/ख़्याल के मानने वालों पर यकसां लागू होती है.
यह सुलूक ही इश्तेहार से इतर, हक़ीकत में बेहतर इंसानी रिश्ते कायम करने और समाज बनाने में मददगार होगा क्योंकि 'नेकी से जुड़ेंगे दिलों के तार…'
(ये लेखक के निजी विचार हैं)