जब लालू यादव ने बिहारियों से कहा “बस मौज करो, मछली मारो और ताड़ी पीयो...
पटना (मुकुन्द सिहं)। लोगों के बीच गमछा डाल कर घूमना, भैंस की पीठ पर बैठना, बनियान पहन कर प्रेसवार्ता में पहुंचना, ये सब राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के स्टंट हैं। क्योंकि भैंस पर बैठकर 100-200 मीटर तो जा सकते हैं, लेकिन सुदूर गांव पहुंचना हो तो उड़न खटोले (हेलीकॉप्टर) के बगैर एक कदम आगे नहीं बढ़ते।
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चुनाव के दौरान उड़न खटोले, पर किसी सुदूर गाँव में उतरना और गांव वासियों को बताना कि सड़क और पुल बना देंगे तो अफीम की अवैध खेती नहीं कर पाओगे, क्योंकि अफसर तब "धड़ाक-धड़ाक" छापा मारेगा" का तर्क देकर वोट हासिल करना, पांच-दस साल तो चलता है पर इससे अधिक नहीं।
खैर कुछ साल पहले राघोपुर के एक गाँव की घटना ले लीजिये जहां लालू "उड़नखटोला" से उतरे और तीन वाक्यों का चुनावी भाषण दिया।
लालू
बोले,
"अब
जब
तुम
नदी
में
जाल
डालते
हो
मछली
पकड़ने
के
लिए
तो
कोई
सरकारी
अमला
(कर्मचारी)
तो
मना
नहीं
करता?"
भीड़
ने
जवाब
दिया
"ना
साहेब"।
लालू
का
दूसरा
सवाल,
"जब
ताड़ी
के
पेड़
पर
चढ़
कर
ताड़ी
उतारते
हो
तो
कोई
टैक्स
तो
नहीं
लेने
आता?"
भीड़
ने
उसी
उत्साह
से
जवाब
दिया
"ना
साहेब"।
लालू का तीसरा और अंतिम चुनावी वाक्य था "बस मौज करो, मछली मारो और ताड़ी पीयो"।
उस समय वहाँ से चुनाव में जबरदस्त सफलता मिली थी। लेकिन उसी लालू की पत्नी और पूर्व मुख्यमंत्री उसी विधानसभा क्षेत्र से 2010 में चुनाव हार जाती हैं, क्योंकि समय बदल चुका था। जनता को अब अवैध मछली और ताड़ी नहीं, बच्चों को नौकरी चाहिए थी, अस्पताल चाहिए था, सड़क चाहिए थी। आज समय और आगे बढ़ चुका है, अब जनता को इन सबके साथ-साथ ब्रॉडबैंड चाहिये, बच्चों को अच्छी शिक्षा, ताकि वे डिजिटल होते इंडिया का हिस्सा बन सकें। उस स्तर की नौकरी चाहिये, जिसके लिये उन्हें कर्नाटक, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश जाना पड़ता है।
सवाल- क्या लालू प्रसाद यादव यह बात समझ पा रहे हैं? जवाब है- नहीं। और शायद उन लोगों को भी नहीं, जो लालू की भक्ति में पूरी तरह डूब चुके हैं।
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क्या हैं वर्तमान हालात
चुनाव आयोग के एक सर्वे के अनुसार बिहार के 80 प्रतिशत मतदाताओं का मानना है कि पैसे या गिफ्ट लेकर मतदान करने में कोई बुराई नहीं है। कोई 8500 से अधिक लोगों के सैंपल साइज़ के आधार पर किये गए इस सर्वे का निष्कर्ष राज्य के चुनाव तंत्र के लिए एक चुनौती बन गया है।
कोई ताज्जुब नहीं कि बिहार ऐसे गरीब राज्य में चुनाव घोषणा के बाद से अभी तक 16 करोड़ रुपये, 8300 लीटर शराब और 8.50 किलो सोना बरामद हो चुका है। किसी समाज में भ्रष्टाचार को लेकर अगर सहिष्णुता का यह भाव हो तो समझा जा सकता है कि चुनावी संवाद किस स्तर तक जा सकता है। और नेताओं को तार्किक या नैतिक मानदंडों को ठेंगा दिखाना कितना सहज हो सकता है।
लालू के बेटों की उम्र
उदाहरण के तौर पर आपको बताते चले की क्या किसी समाज में 68 साल के प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के बाद भी कोई राजनीतिक नेता यह कह कर बच सकता है कि उसका बड़ा बेटा 25 साल का है और छोटा 26 साल का क्योंकि मतदाता सूची में ऐसा हीं लिखा है? क्या किसी सभ्य समाज की तार्किक और नैतिक सोच पर यह तमाचा नहीं है?
भ्रष्टाचार के आरोप में सजा पाए राजद सुप्रीमों लालू प्रसाद यादव ने कहा कि उनके दोनों पुत्रों ने जो उम्र लिखवाई है उसका आधार मतदाता सूची में दर्ज उम्र है। हकीकत यह है कि अगर मतदाता सूची या किसी सरकारी दस्तावेज में कोई टाईपिंग सम्बंधित या मानवीय गलती तथ्यों को लेकर दिखाई देती है तो उसे ठीक कराना सम्बंधित नागरिक की जिम्मेदारी होती है। अगर लालू के तर्क को आधार बनाया जाये तो पुलिस के दस्तावेजों के हिसाब से या अदालत के फैसले के मुताबिक वह भ्रष्टाचार के दोषी हैं, लेकिन उन्होने उसे गलत ठहराते हुए उपर की अदालत में अपील की है।
लाखों हैं लालू के भक्त
यह सत्य है कि अशिक्षित अथवा अर्ध-शिक्षित समाज में तर्क पर भावनाएं भारी पड़ती हैं अगर किसी उच्च जाति के नेता जैसे जगन्नाथ मिश्र पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं तो उसे फिर सशक्तिकरण का अहसास होता है। यही कारण है कि जब लालू यादव पर लगे चारा घोटाले के आरोप के बाद के एक चुनाव में राघोपुर के एक यादव मतदाता से पूछा गया कि "तुम्हारे नेता पर भ्रष्टाचार का आरोप है फिर भी तुम लालू यादव को वोट दोगे तो वह गुस्से से भड़क कर बोला, अच्छा, जब मिसिर बाबा करे तब आप लोगों को कोई दिक्कत नहीं, लेकिन हमारा नेता करे तो गलत है"।
भावना तर्क पर भारी पड़ गयी थी। चूंकि भावनात्मक आधार पर जनमत मोड़ना अर्ध-शिक्षित, नीम-तार्किक समाज में तो चलता है लेकिन जैसे-जैसे समाज में शिक्षा बढ़ती है, आर्थिक आय में इजाफा होता है और इन दोनों के कारण तर्क शक्ति भावना से हट कर बौद्धिक स्तर का सहारा लेने लगती है तो वह व्यक्ति यह सोचने लगता है कि हमारा नेता भी उसी स्तर का भ्रष्ट हो गया जिस स्तर का उच्च वर्गीय नेता इतने दशकों तक था। उसे इससे भी शक्ति मिलती है कि अधिकतर एसपी और डीएम "अपनी" जाति से हैं और जहाँ तक सड़क का सवाल है वह तो न तब बनी न आज बनी, ना हीं नौकरी तब लगी न आज लगी।
सोच और तर्क के इस भाव में आने की एक शर्त है। किसी समाज या पहचान समूह में नीचे जितनी चेतना-शून्यता होगी उतनी हीं इस तरह की राजनीति के जिन्दा रहने की मियाद होगी।
नेता चले बीएमडब्ल्यू से हमें यामाहा ही मिल जाये?
एक और आयाम की बात करें तो भारतीय जनता पार्टी के सुशील मोदी ने आरोप लगाया कि लालू के प्रत्याशी पुत्र-द्वय में से एक की सम्पति के रूप में एक 17 लाख की मोटर-साइकिल है और एक बीएमडब्लू कार। प्रश्न यह नहीं है कि 17 लाख रुपये की मोटरसाइकिल कैसे? प्रश्न यह है कि ऐसी मोटरसाइकिल अपने लिए रख कर उन लाखों यादव युवाओं को अब यह नहीं कह सकते कि तुम भैंस की पीठ पर बैठ कर शक्ति का अहसास करो और हम बीएमडब्लू कार पर।
कम से कम एक यमहा या होंडा बाइक उसे भी चाहिए। यही कारण है कि यादव मतदाता विकल्प की तलाश पिछले दस साल से कर रहा है। लेकिन लालू अभी भी पहचान नहीं पा रहे हैं। उन्हें यह नहीं समझ में आ रहा है कि पहचान समूह की चेतना परिवर्तित होती रहती है लिहाज़ा राजनीतिक सन्देश की विषय वस्तु और सम्प्रेषण का तरीका भी बदलना पड़ता है।
गो मांस पर विकृत तर्क
गौ-मांस पर उनका बोलना उसी विकृत तर्क का नमूना है, जिसके तहत कानून को ठेंगे पर रखना। लालू यादव के भड़काऊ बयान और ट्वीट सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के लिये काफी हैं। ऐसे नेता शाश्वत भाव समझते हैं। "शैतान" ने उन्हें "भुलवा" दिया कि वह यादवों (गौ-पालकों) के नेता हैं ना कि मात्र 17 प्रतिशत मुसलामानों के। दोनों मिलते हैं तब 30-31 प्रतिशत बनता है वह भी अगर पूरा मिला तब। 2014 केचुनाव में लालू की पार्टी मात्र 20 प्रतिशत पर रह गयी थी।
अगर लालू का छोटा बेटा 26 साल का है और बड़ा 25 साल का और वे राज्य की विधानसभा के चुनाव में जीतते हैं और 10.5 करोड़ बिहारियों लिए कानून बनाते हैं तो शायद दुनिया के प्रजातंत्र के लिए इससे बड़ा मज़ाक कोई और नहीं हो सकता। वैसे भी यह जिम्मेदारी प्रत्याशी की होती है कि उसे ठीक करवाए अन्यथा अगर किसी तरह से असली जन्म प्रमाण तय करने वाले दस्तावेज चुनाव आयोग के हाथ लग गए तो नामांकन या चुनाव रद भी हो सकता हैं।