नज़रिया: वंदे मातरम विवाद का सच जानना ज़रूरी है
- बंकिम चंद्र चटर्जी रचित गीत वंदे मातरम फिर से एक बार चर्चा में है
- हाल ही में मद्रास HC के एक फ़ैसले से राष्ट्रगीत 'वन्दे मातरम' को लेकर विवाद शुरू हो गया है.
- उन्होंने यह आदेश दिया है कि वंदे-मातरम को हर संस्थानों में हर महीने कम से कम एक बार गाना होगा
बंकिम चंद्र चटर्जी रचित गीत वंदे मातरम फिर से एक बार चर्चा में है. इस बार हलचल आरएसएस के प्रिय नारे 'हिंदुस्तान में रहना है तो वंदे-मातरम कहना होगा' को लेकर नहीं हो रही है बल्कि मद्रास हाई कोर्ट के न्यायधीश एमवी मुरलीधरन के एक आदेश को लेकर है.
उन्होंने यह आदेश दिया है कि राष्ट्रगीत वंदे-मातरम को हर सरकारी/ग़ैर-सरकारी दफ़्तरों/संस्थानों/उद्योगों में हर महीने कम से कम एक बार गाना होगा. क्योंकि यह गीत मूल रूप से बांग्ला और संस्कृत भाषा में है इसलिए इसे तमिल व अंग्रेज़ी में अनुवाद करने के भी आदेश दिए गए हैं.
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यहां यह जानना ज़रूरी है कि जिस केस में यह फ़ैसला दिया गया है उसमें इस गीत को गाने या न गाने से सम्बंधित किसी तरह की अपील नहीं की गयी थी. यह गीत शिक्षा संस्थाओं में अनिवार्य रूप से गाया जाए या नहीं, इस के बारे में सुप्रीम कोर्ट 25 अगस्त को सुनवाई करने जा रही है.
भारत उन गिने चुने देशों में से एक है जहां विवादों से परे राष्ट्रगान (जन गण मन) होने के बावजूद वंदे मातरम राष्ट्रगीत के तौर पर स्वीकृति रखता है.
इस गीत पर हर बार का विवाद इस बहस को ताज़ा कर देता है कि देश के मुसलमान इस देशभक्ति के तराने को गाना नहीं चाहते हैं और इस तरह उनकी देशभक्ति संदिग्ध है.
यह हमारे देश की बदक़िस्मती है कि अगर किसी भी मुद्दे या विमर्श में मुसलमान या इस्लामी पहलू जुड़ जाए तो वह बहस सेहतमंद ना रहकर उग्र सांप्रदायिक रूप ले लेती है. इस सब से बचने का एक तरीक़ा यह है कि हम इस गीत की रचना के इतिहास के साथ-साथ, इस के राष्ट्रगीत बनने और इस पर पैदा हुए विवाद के इतिहास के बारे में कुछ बुनियादी सच्चाइयों को जानें.
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वंदे मातरम की रचना का इतिहास
बंकिम चंद्र चटर्जी (1838-1894) पहले हिंदुस्तानी थे जिन्हें इंग्लैंड की रानी ने भारतीय उपनिवेश को अपने अधीन में लेने के बाद 1858 में डिप्टी कलेक्टर के पद पर नियुक्त किया था.
वे 1891 में रिटायर हुए और अंग्रे़ज शासकों ने उन्हें 'राय बहादुर' और सीआईइ जैसी उपाधियों से सम्मानित किया.
यह गीत उन्होंने 1875 में लिखा जो बांग्ला और संस्कृत में था. यह गीत बाद में बंकिम ने अपने प्रसिद्ध लेकिन विवादस्पद कृति 'आनंदमठ' (1885) में जोड़ दिया.
इस गीत से जुड़ा एक रोचक सच यह है कि इसमें जिन प्रतीकों और जिन दृश्यों का ज़िक्र है वे सब बंगाल की धरती से ही संबंधित हैं.
इस गीत में बंकिम ने सात करोड़ जनता का भी उल्लेख किया है जो उस समय बंगाल प्रांत (जिस में ओडिशा-बिहार शामिल थे) की कुल आबादी थी. इसी तरह जब अरबिंदो घोष ने इसका अनुवाद किया तो इसे 'बंगाल का राष्ट्रगीत' का टाइटल दिया.
प्रसिद्ध बांग्ला लेखक नरेश चंद्र सेनगुप्ता जिन्होंने 20 वीं शताब्दी के आरम्भ में 'आनंदमठ' का अंग्रेजी में अनुवाद किया उन्होंने साफ़ लिखा कि इस गीत को पढ़ने के बाद यह जानकर दुःख होता है कि बंकिम बांग्ला राष्ट्रवाद से इतने ग्रस्त थे कि उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद की परवाह नहीं थी.
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बंकिम के जीवनकाल में इस गीत को ज्यादा मक़बूलियत नहीं हासिल हुई, इस के बावजूद कि रबीन्द्रनाथ टैगोर ने इस के लिए एक ख़ूबसूरत धुन बनाई.
बंगाल के बंटवारे ने इस गीत को सचमुच में बंगाल का राष्ट्रगीत बना दिया. 1905 में अंग्रेज़ सरकार की ओर से बंगाल के विभाजन के विरुद्ध उठे जनआक्रोश ने इस गीत विशेषकर इसके मुखड़े को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक हथियार में बदल दिया.
हिन्दुओं और मुस्लमानों ने मिलकर वंदे-मातरम और अल्लाह-हू-अकबर के नारों से अंग्रेज़ शसकों का जीना हराम कर दिया.
वंदे मातरम का नारा उस समय सारे बंगाल में आग की तरह फैल गया जब बारीसाल (अब बांग्लादेश में) में किसान नेता एम रसूल की अध्यक्षता में हो रही बंगाल कांग्रेस के प्रांतीय अधिवेशन पर अंग्रेज़ सेना ने वंदे मातरम गाने के लिए बर्बर हमला किया. रातोंरात यह बंगाल ही नहीं बल्कि सारे देश में गूंजने लगा.
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इस सच्चाई को नहीं झुठलाया जा सकता कि अनगिनत शहीद, जिनमें भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, रामप्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ान शामिल थे - वंदे-मातरम गाते हुए फांसी के फंदों पर झूल गए थे.
यह नारा साझे राष्ट्रवाद का मंत्र बन गया बिल्कुल वैसे ही जैसे इंक़लाब ज़िंदाबाद. 20वीं शताब्दी के दूसरे दशक आते-आते अंग्रेज़ विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन देशव्यापी रूप ले चुका था.
इससे घबराकर अंग्रेज़ शासकों और उनके भारतीय पिट्ठुओं ने हिन्दू राष्ट्रवाद बनाम मुस्लमान राष्ट्रवाद के तम्बू गाड़कर साझे राष्ट्रवाद को छिन्न-भिन्न करने का फ़ैसला किया और इस रस्साकशी में वंदे-मातरम भी एक बड़ा मुद्दा बन गया.
कांग्रेस, जिसके नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था उसने वंदे-मातरम पर विभाजन को रोकने के गाँधी, नेहरू, अबुल कलाम आज़ाद और सुभाष चंद्र बोस को लेकर 1937 में एक समिति बनाई जिस ने इस गीत पर आपत्तियां आमंत्रित कीं.
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सबसे बड़ी आपत्ति यह थी कि यह गीत एक धर्म विशेष के हिसाब से भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित करता है. यह सवाल केवल मुसलमान संगठनों ने ही नहीं बल्कि सिख, जैन, ईसाई और बौद्ध संगठनों ने भी उठाया.
इसका हल यह निकाला गया कि इस गाने के शुरू के केवल दो अंतरे गाए जाएंगे जिनमें कोई धार्मिक पहलू नहीं है.
लेकिन इस से हिन्दू और मुसलमान सांप्रदायिक तत्व संतुष्ट नहीं हुए. आरएसएस/हिन्दू महासभा दोनों का ही यह कहना था कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और यह पूरा गीत गाना चाहिए.
मुस्लिम लीग ने इसी हिन्दुत्वादी सोच को बहाना बनाकर साझे आज़ादी के आंदोलन से मुसलमानों को अलग रखने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए.
कांग्रेस की इस समिति ने एक दूसरी बड़ी आपत्ति पर खामोश रहना ही मुनासिब समझा. यह आपत्ति थी कि यह गाना बंकिम की एक ऐसी कृति से लिया गया है जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा और अंग्रेज़ी राज की वाहवाही का गुणगान करती है .
हिंदुत्ववादी शक्तियों का दोहरापन
आरएसएस वंदे मातरम के पूरे गाने की वकालत करता है और इसे राष्ट्रगान से भी उत्तम और ऊंचा बताता है.
वो इसे अपने हिन्दू राष्ट्र के प्रोजेक्ट के अनुकूल पाता है लेकिन उन्हें देश को ज़रूर बताना चाहिए कि अंग्रेज़ी राज में उनके किस-किस नेता और स्वयंसेवकों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ इस गाने को गाया, उनमें से कितने शहीद हुए और कितनों ने जेलों में सज़ा काटी.
सच तो यह है कि वंदे मातरम के मौजूदा ठेकेदार, आज़ादी से पहले पूरी तरह से मौन थे. हिन्दुत्वादी टोली की समस्या यह है कि प्रजांतात्रिक और धर्मनिरपेक्ष भारत का राष्ट्रगान उनको खटकता है. इसके बरक्स वे वंदे मातरम को खड़ा करना चाहते हैं.
समाधान
इस विवाद के समाधान में ज़रा भी मुश्किल नहीं है. 1937 में कांग्रेस की ओर से स्थापित समिति ने जो फ़ैसला दिया था उसको लागू किया जाए.
मद्रास हाई कोर्ट को भी इसी रौशनी में अपने फ़ैसले को स्पष्ट करना चाहिए.