तीन तलाक पर तीन जजों की राय, यूं नहीं है यह फैसला ऐतिहासिक
तीन तलाक मुद्दे पर तीनों जजों की अहम बातें, किन बातों पर ये जज थे राजी और किन बातों पर था इनका विरोध
नई दिल्ली। तीन तलाक के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने अपना फैसला सुना दिया है, ये सभी जज अलग-अलग धर्म और मान्यताओं को मानने वाले हैं। इस फैसले को तैयार करने के लिए जजों की बेंच ने तीन महीने से अधिक का समय लिया है और कुल 395 पेज का फैसला सुनाया। महिलाओं के खिलाफ तीन तलाक के नाम पर हो रहे अत्याचार के मामले में कोर्ट के इस फैसले को ऐतिहासिक माना जा रहा है। लेकिन इस मामले में फैसला देने वाले जजों की राय इससे जुदा है, जजों ने तीन तलाक को इसके स्वरूप की वजह से असंवैधानिक करार दिया है, बजाए इसके कि यह कानून महिला और पुरुष में भेद करता है।
हिंदू महिला के मामले से शुरू हुआ तीन तलाक का मुद्दा
तीन तलाक का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में उस वक्त उठा था जब 2005 में हिंदू उत्तराधिकार का मामला कोर्ट आया था, जिसमें एक हिंदू महिला फूलवती को अपने भाई के खिलाफ कोर्ट में जीत मिली थी, लेकिन महिला यह केस सुप्रीम कोर्ट में हार गई थी। जस्टिस आदर्श कुमार गोएल और अनिल आर दवे ने फैसला दिया था कि मुस्लिम कानून भी भेदभावपूर्ण है, जिसके लिए अलग से एक पीआईएल दायर की जानी चाहिए।
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शायरा बानो पहुंची थी मामला लेकर कोर्ट
मौजूदा
तीन
तलाक
मामला
पहली
बार
शायरा
बानों
कोर्ट
लेकर
पहुंची
थी,
उन्होंने
बहुविवाह
और
हलाला
को
असंवैधानिक
घोषित
की
जाने
की
अपील
की
थी।
लेकिन
इस
मामले
में
तब
रोचक
मोड़
आया
जब
उनके
पति
ने
तलाक
देने
से
पहले
एक
मामला
दर्ज
कराया
जिसमें
उन्होंने
कहा
था
कि
उनके
दांप्तय
जीवन
को
फिर
से
स्थापित
किया
जाए,
उन्होंने
अपनी
शिकायत
में
यह
भी
कहा
कि
उन्होंने
शायरा
को
तलाक
नहीं
दिया
है
बल्कि
शायरा
ने
उन्हें
तलाक
दिया
है।
हालांक
फूलवती
को
इंसाफ
नहीं
मिल
पाया,
लेकिन
उनके
केस
से
मुस्लिम
महिलाओं
को
त्वरित
तीन
तलाक
से
जरूर
मुक्ति
मिल
गई।
कई बातों पर सहमति और असहमति भी है
तीन
तलाक
मामले
में
कुल
पांच
जजों
ने
अपना
फैसला
इसके
खिलाफ
दिया
है
और
इसे
गैरसंवैधानिक
बताया
है।
इस
मामले
की
सुनवाई
में
सीजेआई
जस्टिस
जेएस
खेहर
की
एक
राय
से
तो
जस्टिस
एस
अब्दुल
नजीर
सहमत
थे
लेकिन
वह
जस्टिस
कूरियन
जोसेफ
की
राय
से
सहमत
नहीं
थे।
वहीं
तीसरा
फैसला
जस्टिस
रोहिंटन
एप
नरीमन
ने
अपने
और
जस्टिस
उदय
यू
ललित
की
ओर
से
लिखा
था,
ऐसे
में
कुछ
बातों
पर
कुछ
जज
सहमत
थे,
तो
कुछ
बातों
पर
जजों
में
आम
राय
नहीं
बन
सकी,
आइए
डालते
हैं
इनपर
एक
नजर।
यहां
यह
गौर
करने
वाली
बात
है
कि
सभी
जजों
ने
अपनी
राय
देते
हुए
यह
साफ
किया
था
कि
यह
फैसला
सिर्फ
इंस्टैंट
तीन
तलाक
पर
है
नाकि
मुस्लिम
पर्सनल
लॉ
बोर्ड
के
तलाक
के
अलग
नियमों
को
लेकर।
जस्टिस नरीमन- तीन तलाक असंवैधानिक है
जस्टिस नरीमन ने कहा कि तीन तलाक असंवैधानिक है क्यों कि यह संविधान के समानता के अधिकार के खिलाफ है। उन्होंने अपने फैसले का आधार 1937 के शरीअत एक्ट को बनाया। जस्टिस नरीमन ने 1932 के प्रीवी काउंसिल के तीन तलाक पर फैसले का हवाला दिया। उन्होंने कहा कि मुसलमानों के फर्ज को पांच हिस्सों में बांटा जा सकता है फर्ज यानि जिसे मुसलमानों को हर हाल में मानना चाहिए, दूसरा वाजिब जोकि फर्ज से थोड़ा कम महत्वपूर्ण है, तीसरा मुस्तहब जोकि सिफारिशी होता है, चौथा मकरू यानि जो अपवित्र है और पांचवा हराम जिसे माना ही नहीं जा सकता है यानि निषेध है। उन्होंने कहा कि इंस्टैंट तीन तलाक या तो शुरुआत की तीन कैटेगरी में है या फिर चौथी कैटेगरी में है। ऐसे में यह पांचवी कैटेगरी में नहीं है लिहाजा इसे अनुच्छे 25 यानि धर्म की आजादी के अधिकार से नहीं जोड़ा जा सकता है, लिहाजा यह असंवैधानिक है।
जस्टिस खेहर- फैसला धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार में मील का पत्थर
जस्टिस खेहर ने अपने विस्तृत फैसले में कहा है कि यह एक मील का पत्थर साबित होने वाला फैसला है जो कि देश में धर्म की आजादी के लिए ऐतिहासिक साबित होगा। पहली बार भारत के न्यायिक इतिहास में संविधान में धर्म से जुड़ी किसी बात को असंवैधानिक करार दिया गया है। उन्होंने कहा कि पर्सनल लॉ धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार के तहत आता है, जिसकी रक्षा करना कोर्ट का दायित्व है। साथ ही उन्होंने कहा कि पर्सनल लॉ बोर्ड न्यायित जांच के अनुसंधान से बाहर है। कोर्ट का काम यह नहीं है कि वह पर्सनल लॉ में किसी भी तरह की कमी निकालें, क्योंकि यह मान्यताओं पर आधारित है, तर्क पर नहीं।
जस्टिस जोसेफ- तीन तलाक गैर इस्लामिक है
वहीं इस मामले में तीसरे जज जस्टिस जोसेफ ने मुख्य न्यायाधीश के मत का पूरा समर्थन किया कि धर्म की स्वतंत्रता होनी चाहिए, वह जस्टिस नरीमन की इस बात पर भी सहमत थे कि तीन तलाक मुस्लिम पर्सनल लॉ का अभिन्न अंग नहीं है। हालांकि वह इस बात पर जस्टिस नरीमन की शरियत एक्ट की व्याख्या से राजी नहीं थे। जस्टिस जोसेफ मुख्य न्यायाधीश की इस बात पर सहमत थे कि तीन तलाक शरियत एक्ट में कानून नहीं है। उन्होंने कहा कि 1937 एक्ट का उद्देश था कि मुस्लिम धर्म में गैर इस्लामी मान्यताओं जोकि कुरान का हिस्सा नहीं है उसे अवैध घोषित किया जाए। यह शरियत का हिस्सा नहीं है लिहाजा इसे शरियत एक्ट में भी नहीं होना चाहिए।