BBC INNOVATORS: 'छतें' बदल रही हैं झुग्गी बस्तियों की तस्वीर
गुजरात में मॉड्यूलर रिसाइकल्ड छतें स्लम के घरों का कायाकल्प कर रही हैं.
हसित गणात्रा गुजरात के अहमदाबाद के स्लम में घूमते हुए पाते हैं कि स्लम में रहने वालों की ज़िंदगियां ख़राब घर की वजह से नारकीय बनी हुई हैं.
वो कहते हैं, "आप स्लम और गांवों में जाते हैं तो आपको वहां कई समस्याएं दिखती हैं."
2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में करीब साढ़े छह करोड़ लोग स्लम में रहते हैं. इस जनगणना में स्लम की परिभाषा यह मानी गई है कि "वो इलाके जहां इंसानों के रहने के लिए माकूल घर ना हो."
हसित गणात्रा कहते हैं, "आप जब वहां घरों की छतें देखेंगे तो उसमें आपको कई जगह छेद दिखेंगे. उन लोगों से इस बारे में पूछने पर उनका जवाब होता है कि उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है."
आमतौर पर टिन की बनी ये छतें गर्मी के दिनों में बहुत गर्म, ठंड के दिनों में बहुत ठंडी और बारिश के दिनों में टपकने लगती हैं.
हसित गणात्रा ने इंजीनियरिंग करने के बाद सोचा कि इन छतों को बनाने का कोई बेहतर तरीका निकालना बहुत ज़रूरी है. एक ऐसा तरीका जो कि सस्ता, टिकाऊ और स्लम में रहने वालों को एक आरामदायक घर दे सके.
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बदतर हालत
हसित को दो साल और 300 बार कोशिशें करने के बाद आख़िरकार कामयाबी मिल ही गई. वो और उनकी कंपनी मॉडरूफ ने कचड़ा, लुग्दी कार्डबोर्ड और नेचुरल फाइबर की मदद से मॉड्यूलर रूफ पैनल तैयार किया जो कि मज़बूत और वाटरप्रूफ है.
वो बताते हैं, "दुनियाभर के विशेषज्ञों ने हमें कहा कि हम इस तरह की कोशिशें छोड़ दें क्योंकि हम कभी यह नहीं कर पाएंगे. लेकिन स्लम की समस्या देखने के बाद आप बिना कुछ किए नहीं रह सकते हैं."
मॉडरूफ की सेल्स टीम में सभी महिलाएं हैं. कई तो खुद इसकी ग्राहक भी हैं.
ये महिलाएं मॉडरूफ के बारे में लोगों को बताती हैं कि कैसे ये मॉड्यूलर रूफ स्लम में रहने वालों बच्चों और औरतों की ज़िंदगियों पर असर डालती है क्योंकि औरतें और बच्चे ही ज़्यादा वक्त घर में गुज़ारते हैं.
सेल्स टीम की सदस्य कौशल्या शर्मा कहती हैं कि यह लोगों के घर को बेहतर बनाकर उनका जीवन बेहतर बनाती है. वो बताती हैं, "जब हम स्लम इलाकों के लोगों के घरों पर जाते हैं तो उनके रहने-सहने की बदहाल हालत को देख कर बहुत बुरा लगता है."
"हम उन्हें बताते हैं कि इस छत का रखरखाव कितना आसान है. हम उन्हें छत खरीदने के लिए लोन दिलवाने में भी मदद करते हैं क्योंकि उनकी आर्थिक हालत खराब होती है."
औसतन 250 स्क्वायर फीट वाले छत की लागत 65000 रुपये आती है. पचास फ़ीसदी ग्राहक इसे खरीदने के लिए लोन लेते हैं. वो हर महीने करीब तीन हज़ार रुपये की दर से दो साल तक इस कर्ज़ को चुकाते हैं.
सकीना चाहती हैं कि जल्द से जल्द मॉडरूफ की टीम उनके घर की छत बनाने का काम शुरू कर दे.
वो बताती हैं, "मेरे चार बच्चे हैं और जिस तरह की छत के नीचे हम रह रहे हैं वो गर्मी के दिनों में बहुत गर्म हो जाती है. इसे बच्चों पर असर पड़ता है. वो एक महीने तक सही से रह नहीं पाते हैं."
वैश्विक संकट
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्लम ख़त्म करने का लक्ष्य बनाया है. सरकार ने शहरी क्षेत्रों में 2020 तक दो करोड़ मकान बनाने का कार्यक्रम शुरू किया है.
इस बीच सेंटर फॉर अर्बन एंड रीज़नल एक्सीलेंस (क्योर) जैसे संगठन स्लम की हालत बेहतर बनाने में लगे हुए हैं.
क्योर की डायरेक्टर रेनू खोसला बताती हैं, "खराब छत एक अच्छे घर का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है. इसलिए अगर लोगों के लिए बेहतर आवास की व्यवस्था करनी है तो फिर नए तरीकों की छत पर ध्यान देने की ज़रूरत है."
अहमदाबाद में कई लोग सिर्फ घर को ढकने के लिए छत का इस्तेमाल करते हैं.
संजय पटेल स्थानीय स्तर पर एक स्कूल चलाते हैं. उनका कहना है कि यह नए तरीके का छत उनके स्कूल के बच्चों को ज़्यादा वक्त बाहर खुले में बिताने का मौका देता है.
वो कहते हैं, "बच्चे अब छत पर जा सकते हैं और उस पर खड़े होकर पतंगें उड़ा सकते हैं यहां तक कि उस पर सो भी सकते हैं. पहले जो टिन की छत थी वो बेकार होती थी. हम उस पर बच्चों को भेजने से डरते थे."
"दुनिया भर से लोग इस छत के बारे में पूछ रहे हैं. खराब घर की समस्या दुनिया भर में हैं. मेरे हिसाब से यह एक वैश्विक समस्या है."
दुनिया भर के लोगों में दिलचस्पी
मॉडरूफ छतों को ऐसे बनाया गया है जो कि 20 साल तक चले. हसित गणात्रा को उम्मीद है कि इतने सालों में भारत के कई स्लम में इन छतों का भरपूर इस्तेमाल किया जाएगा.
बीबीसी वर्ल्ड सर्विस की यह सेवा बिल और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के सौजन्य से है.