सिर्फ 'नर्सरी मसला' नहीं प्राइवेट स्कूल भी हैं अभिभावकों का सिरदर्द
हर
महीने
होती
है
डिमांड
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शहर के एक प्रतिष्ठित स्कूल में अपने बच्चों को पढ़ाने वाले अभिभावक राजीव सिंह कहते हैं कि एक साल में जोड़ा जाए, तो ट्यूशन और ट्रांसपोर्ट फीस के अलावा 2500 से 3000 रुपए अतिरिक्त देने पड़ते हैं। हर माह 200 रुपए किसी न किसी रूप में बच्चों से मांगा जाता है। घर पर बच्चों जिद करते हैं। न चाहते हुए भी बच्चों को पैसे देने पड़ते हैं। बोरिंग रोड स्थित रहने वाली अभिभावक अलका ने बताया कि बच्चा कार्यक्रम में भाग ले या नहीं, यदि स्कूल ने 100 रुपए फीस तय कर दिया है, तो देना जरूरी है।
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ऐसा नहीं है कि यह डिमांड साल में एक-दो बार होती है। बच्चों हर महीने कुछ न कुछ डिमांड लेकर आते हैं। मजबूरन हमें पैसे देने पड़ते हैं। जैसे स्कूल, वैसा चार्जफीस वसूली में स्कूल की प्रतिष्ठा के अनुसार पैसा ‘उगाही' की जाती है। जितना बड़ा स्कूल, उतना ज्यादा पैसा। इसकी कोई हद नहीं है। मसलन सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम पर सौ रुपए लेने के बाद कार्यक्रम की ड्रेस के लिए भी 500 से हजार रुपए तक लिए जाते हैं।
यहां तक कि प्रिंसिपल और शिक्षकों के जन्मदिन पर लिए जाने वाले पैसे भी अलग-अलग होते हैं। यहां तक कि बच्चों को वर्ड मिनिंग के नाम पर भी पांच रुपए से लेकर 20 रुपए तक पैसे देने पड़ते हैं। जरा गौर करें इस हिसाब परएक माह में एक बच्चों से लिया गया पैसा = 150 रुपए स्कूल में बच्चों की कुल संख्या = 300प्रति महीने स्कूल की कमाई - 300*150 = 45000 रुपए, कैसे-कैसे चार्जबिल्डिंग चार्ज - 2000-5000 रुपए, परीक्षा फीस - 100-500 रुपएबर्थ डे - 50-100 रुपए
खेल-कूद - 100-200 रुपएप्रतियोगिता - 20- 50 रुपएकार्यक्रम फीस - 100 रुपए ( बच्चा भाग ले या नहीं देना अनिवार्य)कार्यक्रम की ड्रेस - 500-1000 रुपए फोटोग्राफ - प्रति कॉपी 20-50 रुपए (बच्चा कार्यक्रम में शामिल है तो उसे फोटो के लिए पैसे देने होंगे।
क्लास टीचर्स के साथ ग्रुप फोटो के लिए भी पैसे देने पड़ते हैं) एनजीओ डोनेशन या पुअर फंड - 20 रुपएप्रोजेक्ट वर्क- 100-200 रुपए तक। तो यह है हमारी आधुनिक भारतीय शिक्षा व्यवस्था, जो मॉडर्नाइजेसन के नाम पर बन चुकी है कमाई का साधन। हालांकि सभी स्कूल ऐसा नहीं करते, पर अधिकतर स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ा रहे अभिभावकों को भी कुछ ऐसी ही शिकायत रहती है।