नज़रिया: अरविंद केजरीवाल की हार फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद की जीत है
वरिष्ठ विश्लेषक अपूर्वानंद का मानना है कि दिल्ली की जनता ने नकारेपन और भ्रष्टाचार को नज़रअंदाज किया.
अब हम पटना या जयपुर या जबलपुर जैसे शहर में नहीं रहते, हमेशा भारत नामक राष्ट्र में रहते हैं. बुधवार को दिल्ली के म्यूनिसिपैलिटी के चुनाव नतीजों से यह बात साफ़ हो गई है. यह कि भारत में कम से कम आज के दिन कुछ भी स्थानीय नहीं रहा, हर कुछ राष्ट्रीय हो चुका है.
इसलिए दिल्ली के 10 साल के नकारेपन के कचरे और गंदगी के बीच अगर कमल खिला है तो यह एक धोखाधड़ी से भरे राष्ट्रवादी प्रचार की जीत है और यह बात सबसे पहले कही जानी चाहिए.
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योगेन्द्र यादव हैरान रह गए जब उनके टैक्सीवाले ने कहा कि अरविंद केजरीवाल को सबक़ सिखाना है क्योंकि उसने धोखा दिया है.
उनके याद दिलाने पर कि म्यूनिसिपैलिटी आम आदमी पार्टी नहीं चला रही थी, भारतीय जनता पार्टी उसके लिए ज़िम्मेवार थी पर टैक्सीवाले को फ़र्क़ नहीं पड़ा.
योगेंद्र यादव ने, जो ख़ुद अपनी नई पार्टी के लिए वोट माँग रहे थे, क़बूल किया कि स्थानीय निकायों के चुनाव कश्मीर, गोरक्षा, राष्ट्रवाद, जैसे मुद्दों पर लड़े गए.
अब जनता योगीजी जैसे मुख्यमंत्री की माँग कर रही है, यह बात योगेन्द्र जैसे परिष्कृत रुचि संपन्न ने दहशत से सुनी.
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निश्चय ही इन चुनावों में अरविंद केजरीवाल की हार हुई है, लेकिन क्या यह उनकी सरकार के कामकाज पर टिप्पणी है?
क्या दिल्ली के लोगों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य में ख़र्च की बढ़ोतरी के कोई मायने नहीं? ध्यान रहे कि आम आदमी पार्टी स्थानीय निकाय में न थी.
इसलिए उसके काम के मूल्यांकन का सवाल नहीं था. 10 साल से जो पार्टी इन निकायों को चला रही थी, हिसाब उससे लेना था.
जनता ने उसके नकारेपन और भ्रष्टाचार को नज़रंदाज कर दिया, इस पर ज़रूर सबको सोचने की ज़रूरत है.
योगेन्द्र यादव ने ही पिछले दिनों यह कहना शुरू किया था कि अब भारत की राजनीति विचारधारा से परे वास्तविक मुद्दों पर होने वाली है.
लेकिन विचारधारा भी वास्तविक जगत का हिस्सा है, यह वे भूल गए. विचारधारा और भावना जगत का भी एक रिश्ता है, यह भी हमें याद न रहा.
अगर ऐसा न था तो जिस आंदोलन से ख़ुद आम आदमी पार्टी निकली थी, उसमें लोकायुक्त जैसे रुखे क़ानूनी मसले पर पूरी दिल्ली में विशालकाय तिरंगे झंडे लहराने की, अपने स्टेज पर भारत माता की विशाल तस्वीर लगाने की क्या ज़रूरत थी?
राष्ट्रवाद की नई लहर ख़ुद आम आदमी पार्टी ने पैदा की थी, लेकिन वह इसे संभालने के लिहाज़ से बहुत छोटी ताक़त थी.
इस राष्ट्रवादी उभार का लाभ आख़िरकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मिलना ही था क्योंकि भारत में राष्ट्रवाद हिंदू बहुसंख्यकवाद का दूसरा नाम भर है.
राष्ट्रवाद का अपनी मर्ज़ी भर इस्तेमाल करके उस जिन्न को वापस बोतल में बंदकर दिया जा सकेगा, यह ख़ामख़याली थी.
इन चुनावों से यह बात भी साफ़ हो जानी चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी अब हर प्रकार के चुनाव को लोकसभा के आम चुनाव की तरह राष्ट्रीय बनाकर लड़ रही है. मीडिया के सर्वव्यापीपन ने भी हर स्थनीयता को राष्ट्र में समाहित कर दिया है.
जहाँ पहले मुंबई और दिल्ली या गोरखपुर के बीच एक दूरी थी, वहीं अब मुंबई का मुद्दा गोरखपुर का भी हो जाता है.
शिकायत यह है कि अरविंद ने इसे अपनी और प्रधानमंत्री की लोकप्रियता के बीच प्रतियोगिता बना दिया. सवाल यह है कि क्या यह अरविंद के हाथ रह भी गया था?
जब राजौरी गार्डन की एक सीट के चुनाव नतीजे को अख़बार तीन पृष्ठ दें तो स्पष्ट है कि अरविंद हों, या कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी से उनका बराबरी का संघर्ष रह ही नहीं गया था.
उन्हें इस मीडिया से भी लड़ना था, जो वे कर नहीं सकते थे. अभी इसका विश्लेषण भी बाक़ी है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक व्यापक मोर्चे के वक़ालत करने वाले नीतीश और मायावती ने क्यों इन चुनावों में इसकी शुरुआत न की, बल्कि भारतीय जनता पार्टी विरोधी मत के विभाजन का काम किया?
राष्ट्रवाद आक्रामक विजयपथ पर है, लेकिन इस रास्ते इस राष्ट्र की पराजय निश्चित है, यह चेतावनी देने में क्यों हमारा गला रुँध रहा है?