जेएनयू मुद्दा: शहादत पर देशद्रोह हावी
अभी कितने दिन हुए हैं जांबाज की नब्ज को थमे हुए। कितने दिन हुए हैं सुपुर्द-ए-खाक हुए। जी हां हम हनुमनथप्पा की बात कर रहे हैं। अभी उन्हें शहीद हुए चार दिन भी नहीं हुए कि जेएनयू में हुआ राष्ट्रद्रोह का मुद्दा उठने लगा।
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जहां एक ओर हनुमनथप्पा मौत से दो दो हाथ कर रहे थे। वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लग रहे थे। इन नारों के पीछे छिपे चेहरे नागरिकता के साथ भारतीय का तमगा चिपकाये हुए थे। लेकिन इनकी हरकत के बाद सवा सौ करोड़ भारतीयों के एक बड़़े हिस्से ने इन्हे दोगला कहा, गद्दार कहा, बेशर्म और बद्नुमा दाग कहा। पर, कहें भी क्यों न। आखिर शिक्षा की खातिर जिन बच्चों को मां बाप ने उम्मीदों का झोला थमाकर बेहद अरमान के साथ जेएनयू भेजा। वे दोगले हो गए। खोखले हो गए।
क्या महज तारीखों में दफन हो गए 'हनुमनथप्पा'
हनुमनथप्पा की मौत के बाद उनकी पत्नी माधवी की आंखों के आंसू अभी सूखे भी न थे कि जिस देश की खातिर उनके पति ने प्राण गवाएं, उसी देश के लोग भारत की बर्बादी के नारों के साथ टीवी स्क्रीन्स समेत तमाम समाचार माध्यमों पर चमकने लगे। जिस पिता ने अपनी उम्मीद यानि की अपना बेटा या कहिए अपनी बाजुएं खो दी हों वो भी देश की खातिर गर उसी देश में मातम पसारने वालों की सजा का विरोध होने लगे तो सोचिए जरा क्या गुजरेगी उस पिता पर।
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हनुमनथप्पा के निधन के बाद तमाम समाचार माध्यमों ने तरह तरह से खेद प्रकट किया। शोक व्यक्त किया। श्रद्धांजलि अर्पित की। पर, कुछ ही वक्त गुजरा की बहस देशद्रोह पर आ टिकी। महज तारीखों में दर्ज हो गए हनुमनथप्पा। हनुमनथप्पा की आत्मा की शांति की खातिर जलाई गईं प्रार्थनाओं की मोमबत्तियों से लोगों का ध्यान हटकर देशद्रोह के नारा लगाने वालों की पहचान करने में व्यस्त हो गया। याद करने के लिए तमाम वीर योद्धाओं की तरह तारीख मुकर्रर कर दी गई।
जेएनयू पर सरकार की कार्रवाई सही या गलत?
बुंदेलखंड यूनीवर्सिटी में एमए की छात्रा रहीं श्वेता दुबे का मानना है कि अगर देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने देशद्रोहियों के न बख्शने की बात कही है तो इसमें गलत क्या है। निश्चित तौर पर जिन छात्रों ने देश का नागरिक होते हुए अपने ही देश की खिलाफत की है उनके खिलाफ कठोर से कठोर कदम उठाना चाहिए। पहले रोहित वेमुला के नाम पर गूंगे बहरों की तरह तख्तियां तानकर विरोध की आवाजें बुलंद करने लगे। नारों में दलित का स्टीकर चिपकाकर माहौल को गर्म करने की कोशिशें भी बखूबी की गईं। कम से कम पूरी असलियत जानें फिर शांतिपूर्ण ढंग से बातचीत की जाए। पर न जाने क्यों लोगों को विभिन्न विषयों पर पढ़ाई करते हुए भी महज राजनीति में ही करियर नजर आता है।
वहीं मीडिया संस्थान में पढ़ाई कर रहीं तुलसी अग्निहोत्री का इस मामले पर कहना है कि केंद्र सरकार द्वारा जो कार्यवाही की जा रही है वो एकदम सही दिशा में है। यदि केंद्र सरकार कुछ करे तो दिक्कत और न करे तो दिक्कत ही दिक्कत। आखिर राष्ट्र द्रोहियों को सबक मिलना ही चाहिए।
जर्नलिज्म के लिए विख्यात यूनीवर्सिटी माखनलाल की छात्रा रहीं कृतिका द्विवेदी ने जेएनयू मामले से लांस नायक हनुमनथप्पा को जोड़ते हुए कहा कि कथित सेक्युलर इस तरह से उनकी कुर्बानी पर सवाल खड़े कर रहे हैं, पढ़े लिखे लोग ही भारत की तबाही की बात करते हैं, आतंकवादी के साथ खड़े हो रहे हैं। पूरी तरह से ये निंदनीय है।
शहादत पर देशद्रोह हावी
एक ओर सवाल हनुमनथप्पा की मौत का है तो दूसरी ओर देशद्रोह के इस मुद्दे के उफनने का है। शहादत पर देशद्रोह हावी हो गया। तिरंगे को अपना राष्ट्रीय ध्वज कहने वाले ही लोग लांस नायक हनुमनथप्पा की मौत की असल वजह को बिसरा कर अफजल गुरू के समर्थन में खड़े होने लगे। सिर शर्म से झुक जाता है।
सारी व्यवस्थाएं फिर बेवजह ही नजर आती हैं। सवाल जहन में दस्तक देने लगता है कि जब अपनी आस्तीन में ही सांप पाल रखे हैं, तो बाहर के सांपों को मारने की भला सोच भी कैसे सकते हैं। हां इस पर कार्यवाही हो लेकिन पारदर्शिता के साथ। असल में देशद्रोही ही सजा के हकदार हों। कोई मासूम या मजलूम नहीं। फिर वो किसी भी सरकार, किसी भी संगठन से ताल्लुकात रखता हो। समर्थन हो पर सच का। जरूरी है क्योंकि इस मामले के बाद जहन में आईएसआईएस से ज्यादा भीतरी गिरगिटों से डर पनप रहा है।
नारों का नारे से विरोध
जेएनयू में नारा लगा कि ''तुम कितने अफजल मारोगे घर-घर से अफजल निकलेगा'' लेकिन देश में बड़ी संख्या में लोग विरोध दर्ज कराते हुए ये कहने लगे हैं कि घर-घर में घुस कर मारेंगे, जिस घर से अफजल निकलेगा। बयार चल पड़ी विरोध की। पुलिस लाठियां पटकने लगी सड़़क पर। गिरफ्तारी भी हुई। लेकिन चंद देशद्रोहियों के हिमायती गिरफ्तारी पर सवाल खड़े करने लगे।
आरोपों को एक दूसरे पर फेंकने लगे। सवालों की लंबी चौड़ी श्रंखला जहन में इह ओर उह ओर झांक रही है। पहला तो ये कि इन देशद्रोहियों का साथ देने वालों को किस नजर से देखें। क्या राष्ट्र विरोधी नारों के लिए कठोर सजा नहीं देनी चाहिए। क्या इन लोगों के भीतर राष्ट्र द्रोह की भावना भरने वालों को नहीं तलाश करना चाहिए। सवाल ही सवाल हैं। पर जवाबों को उत्पाती गोलमोल कर रहे हैं। इस भावना को निश्तनाबूत करना होगा तभी विकास की रफ्तार के लिए कोई पहल संभव मानी जाएगी।