क्विक अलर्ट के लिए
नोटिफिकेशन ऑन करें  
For Daily Alerts
Oneindia App Download

आखिर नेताजी सुभाष चंद्र बोस को क्यों नहीं मिला 'भारत-रत्न'?

By प्रेम कुमार (वरिष्ठ पत्रकार)
Google Oneindia News

नई दिल्ली । यह ख्याल भी हमें शर्मिंदा करता है कि यह पूछा जाए कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस को भारत रत्न देने का फैसला सरकार ने देर से क्यों किया? नेताजी के परिवार से यह पूछना भी अनैतिक लगता है कि उन्होंने नेताजी के लिए भारत रत्न स्वीकार क्यों नहीं किया?

सुभाष चंद्र बोस ने किया था प्रेम-विवाह, जानिए कहां हैं उनकी बेटी अनीता बोस?सुभाष चंद्र बोस ने किया था प्रेम-विवाह, जानिए कहां हैं उनकी बेटी अनीता बोस?

जय हिन्द! यह नारा किस हिन्दुस्तानी ने नहीं लगाया होगा! आज़ादी से पहले या आज़ादी के बाद भी 'जय हिन्द' हमारी शान बनी हुई है। गर्वोन्नत सीने के साथ तनकर खड़ा होते हुए दाहिने हाथ से राष्ट्रीय तिरंगे की सलामी लेते हुए आवाज़ निकालना- जय हिन्द! इस अदा में ज़िन्दा हैं सुभाष चंद्र बोस।

'नेताजी' का संबोधन हर सम्मान पर भारी

'नेताजी' का संबोधन हर सम्मान पर भारी

प्रथम प्रधानमंत्री, प्रथम राष्ट्रपति, पूर्व प्रधानमंत्री, पूर्व राष्ट्रपति, भारत रत्न जैसे विशेषण नहीं जुड़े हैं सुभाषचंद्र बोस के नाम से पहले। हां, एक विशेषण उनके नाम के साथ जुड़ चुका था ‘नेताजी'- नेताजी सुभाष चंद्र बोस। यह संबोधन उन्हें तब मिला था, जब उन्होंने सिंगापुर में भारत की निर्वासित सरकार बनायी थी- आज़ाद हिन्द सरकार, जिसके पास थी आज़ाद हिन्द फ़ौज।

तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुझे आज़ादी दूंगा

तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुझे आज़ादी दूंगा

हिन्दुस्तान में जो नारा सबसे ज्यादा लोगों को आकर्षित करता आया है, जिसमें कुर्बानी के लिए प्रेरणा है, सर्वस्व न्योछावर करने का संदेश है और आज़ादी हासिल करने का संकल्प है- वह एक मात्र नारा है- 'तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुझे आज़ादी दूंगा'। सुभाष चंद्र बोस का दिया यह नारा नहीं, आज़ादी का मंत्र है। एक ऐसा मंत्र, जिसने बर्मा को अंग्रेजों से आज़ाद कराया था, एक ऐसा मंत्र जिसने तब भारतीयों के ख़ून में उबाल ला दिया था जब 'करो या मरो' का नारा अंग्रेजी दमनचक्र के सामने अपना असर को रहा था।

खुद नेताजी देश से बाहर थे

खुद नेताजी देश से बाहर थे

नौसेना विद्रोह और आखिरी समय में देश के विभिन्न हिस्सों में मज़दूरों-किसानों के सशस्त्र विद्रोह के पीछे नेताजी का यही मंत्र असर कर रहा था। हालांकि खुद नेताजी देश से बाहर थे। आज़ाद हिन्द फौज को 'दिल्ली चलो' कहकर ललकार रहे थे, अंग्रेजों के छक्के छुड़ा रहे थे। सुभाष चंद्र बोस का नारा सिर्फ नारा नहीं, आंदोलन का सिद्धांत बन गया। आज भी यह लोगों की ज़ुबान पर है।

नेताजी को 'मरणोपरांत' भारत रत्न का फैसला

नेताजी को 'मरणोपरांत' भारत रत्न का फैसला

सचमुच ऐसे महान इंसान के लिए आज़ादी के 53 साल बाद अगर उनका परिवार ‘भारत रत्न' स्वीकार करता, तो यह ग्लानि हमेशा भारतीयों को कचोटती रहती कि सुभाष चंद्र बोस को यह सम्मान तब मिला, जब उनकी सेना के बहादुर सिपाही भी यह सम्मान पा गये थे। लेकिन इससे भी बड़ा सवाल था कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस को भारत रत्न के लिए ‘मरणोपरांत' चुना गया ! अगर इस सम्मान को नेताजी के परिवार ने स्वीकार कर लिया होता, तो इसका मतलब था कि वे भी उनकी मौत के रहस्य की गुत्थी सुलझाने के लिए जारी संघर्ष से पीछे हट गये।

अपराध है नेताजी के परिजनों की खुफियागिरी

अपराध है नेताजी के परिजनों की खुफियागिरी

आज़ाद हिन्दुस्तान में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के परिजनों की (और अगर वे ज़िन्दा थे तो उनकी भी) खुफियागिरी करायी जाती रही। इस तथ्य का खुलासा हो जाने के बाद अब यह सवाल उठता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जानबूझकर नेताजी के लिए भारत रत्न जैसी मांग को केंद्र सरकार ने पास फटकने तक नहीं दिया? इस सवाल का संबंध नेताजी के जिन्दा होने, सोवियत संघ में बंदी होने या बाद में भी उनके जिन्दा रहने की थ्योरी से भी है।

क्यों देश से दूर रहे सुभाष?

क्यों देश से दूर रहे सुभाष?

एक सवाल उठता है कि जो नेताजी सुभाष चंद्र बोस देश में अब तक प्यारे हैं, उनसे आज़ाद भारत की सरकार को नफ़रत क्यों होगी? इस सवाल का जवाब देने के लिए नेताजी खुद कभी उपलब्ध नहीं रहे लेकिन उनकी गैर मौजूदगी में उनके समय की घटनाएं खुद-ब-खुद जवाब देती हुई महसूस होती हैं। महात्मा गांधी की अनिच्छा के बावजूद कांग्रेस अध्यक्ष निर्वाचित होना, उनके असहयोग से खिन्न होकर पार्टी के भीतर फॉरवर्ड ब्लॉक बना लेना और आखिरकार पार्टी से निकाल दिया जाना ऐसी घटनाएं हैं जो आज़ादी के दीवाने सुभाष चंद्र बोस को देश से बाहर खींच ले गयी। संभवत: वे आज़ादी की लड़ाई को कमज़ोर करना नहीं चाहते थे। इसलिए गांधी और उनके प्रिय नेहरू से दूर रहते हुए सुभाष ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी सरकार को कमज़ोर करने की कोशिश की।

सरकार की जिम्मेदारी है आशंकाओं का निवारण

सरकार की जिम्मेदारी है आशंकाओं का निवारण

1946 में जब पंडित नेहरू अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री बन चुके थे, तभी सुभाष चंद्र बोस के गिरफ्तार होने, सोवियत संघ के पास होने और ब्रिटेन में भारत के राजदूत मेनन से सोवियत विदेश मंत्री की वार्ता पेरिस में होने की बात सामने आयी। उस वार्ता का मकसद आज तक गोपनीय है। आशंका है कि वह वार्ता सुभाष चंद्र बोस के जिन्दा रहने की ख़बर को दबाने के बारे में थी। यह आशंका गलत भी हो सकती है लेकिन तथ्यों के आईने में इस आशंका का निवारण करने की जिम्मेदारी भी सरकार की ही है।

 बेमानी है कांग्रेस सरकार से न्याय की उम्मीद

बेमानी है कांग्रेस सरकार से न्याय की उम्मीद

जिस नेहरू सरकार या कांग्रेस सरकार पर सुभाष चंद्र बोस कि ज़िन्दा होने की बात छिपाने की अंतरराष्ट्रीय साजिश रचने के आरोप हो, उस सरकार से ये उम्मीद कर लेना कि वह सुभाष चंद्र बोस को भारत रत्न देने में तत्पर क्यों नहीं रही बेमानी लगता है

भारत-रत्न, नोबेल से ऊपर हैं नेताजी सुभाष

भारत-रत्न, नोबेल से ऊपर हैं नेताजी सुभाष

सुभाष चंद्र बोस भारत के ऐसे रत्न हैं जो दुनिया में बने किसी भी सम्मान से ऊपर हैं और रहेंगे। सुभाष चंद्र बोस नोबेल पुरस्कार के लिए भी कभी विचारणीय नहीं रहे तो इसके पीछे वजह यही रही कि जब उन्हें उनके ही देश में हिटलर समर्थक घोषित कर दिया गया, तो भला उन्हें दुनिया शांति के लिए पुरस्कार के योग्य ही क्यों समझती? सच्चाई ये है कि सुभाष चंद्र बोस का स्वतंत्रता संग्राम मानवता के लिए और विश्व बन्धुत्व के लिए था। उन्होंने जो सर्वस्व त्याग किया, कुर्बानी दी, वह अतुलनीय बनी रहेगी।

Comments
English summary
Like the others said, Subhash Chandra Bose was supposed to be conferred with the Bharat Ratna according, to press release in 1992 after, it is said, proposals from PV Narasimha Rao.
देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरों से अपडेट रहने के लिए Oneindia Hindi के फेसबुक पेज को लाइक करें
For Daily Alerts
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
X