मौलाना, आप आधी रात से शोर ना मचाएं, रोजे के लिए हम खुद जग जाएंगे
रोजा मेरा फर्ज है तो इसे पूरा करना भी मेरी जिम्मेदारी है, अपने फर्ज हम खुद जागको मैं मस्जिद के इमाम या मुअज्जिन के भरोसे छोड़ के कैसे सो सकता हूं कि आप उठा देना मुझे फर्ज निभाना है।
नई दिल्ली। हाल ही में सोनू निगम ने अजान को लेकर एक ट्वीट किया था कि वो अजान की आवाज आने से सुबह जल्दी उठ जाते हैं, इससे उन्हें परेशानी है और ऐसा नहीं होना चाहिए। खैर, फिलहाल वो साथी गायक अभिजीत को 'छात्रा को वेश्या' कहने का हक दिलवाने के लिए ट्विटर से बायकॉट कर गए हैं। मानकर चलिए कि रमजान का महीना शुरू होने पर जिस तरह से लाउडस्पीकर बढ़े हैं, उनके ट्विटर पर ना होने से एक विवाद होने से बच गया है।
वैसे, बात शायद सोनू निगम को लेकर नहीं होनी थी लेकिन में सोनू ने जिस तरह से धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकर को लेकर हाल ही में आवाज उठाई थी, रमजान शुरू होने के बाद उनकी याद आनी ही है। वो ट्विटर पर रहते तो शायद कुछ और नए ट्वीट बम फोड़ते, अब वो ट्विटर पर नहीं है तो उनकी बात छोड़ देते हैं।
दरअसल, पिछले कुछ सालों से रमजान में सुबह सहरी के लिए लोगों को उठाने की मस्जिदों में जो एक होड़ सी देखने को मिल रही है, जो बहुत से लोगों के लिए जहमत का सबब बनी हुई है। हो सकता है कि ये बहुत पुरानी हो लेकिन कुछ सालों से इसे ज्यादा महसूस किया गया है। सहरी के लिए सुबह 2-2:30 बजे से मस्जिदों में (सभी नहीं लेकिन ज्यादातर जगहों पर) माइक बजने शुरू हो जाते हैं, जो कहीं 10-10 तो कहीं 15 से 20 मिनट के बाद आपको वक्त की जानकारी देते हैं। ये आधी रात आपको समझाना शुरू कर देते हैं कि कितनी देर बची है सहरी के टाइम में और अब आपको जरूर उठ जाना चाहिए और अब आपको खाना बनाना चाहिए और अब खाना चाहिए.. ब्ला.. ब्ला...
बात सिर्फ टाइम बताने तक नहीं है, लाउडस्पीकर की आवाज भी जोरदार कर दी जाती है या शायद रात के वक्त की वजह से आवाज बहुत बढ़ जाती है। ऐसे में अगर किसी का घर किसी मस्जिद के आसपास है तो ये तय मानिए कि सहरी के वक्त एक आम इंसान के लिए सोना मुश्किल है।
हर
10
मिनट
पर
क्यों
बताते
हो
टाइम?
ईमानदारी
से
इस
पर
सोचने
की
जरूरत
है
कि
क्या
वाकई
इन
लाउडस्पीकरों
की
जरूरत
है
और
फिर
हर
5-10-15
मिनट
पर
वक्त
बताने
की
जरूरत
है?
क्या
पड़ोसी
दूसरे
पड़ोसी
का
इतना
ध्यान
नहीं
रख
सकता
कि
उसे
उठा
दे,
क्या
अलार्म
के
जरिए
लोग
नहीं
उठ
सकते,
क्या
वो
तमाम
काम
जिनके
लिए
हमारे
अंदर
फिक्र
होती
है
उनके
लिए
हम
खुद
नहीं
उठ
जाते,
तो
फिर
यहां
क्या
क्यों
अपने
काम
के
लिए
हम
खुद
नहीं
उठ
सकते?
रोजा
मेरा
फर्ज
है
तो
इसे
पूरा
करना
भी
मेरी
जिम्मेदारी
है,
अपने
फर्ज
को
मैं
मस्जिद
के
इमाम
या
मुअज्जिन
के
भरोसे
छोड़
के
कैसे
सो
सकता
हूं
कि
आप
उठा
देना
मुझे
फर्ज
निभाना
है।
खैर, बात ये नहीं है कि कौन कैसे उठता है या वो रोजा रखता है या नहीं। बात ये भी है कि आप अपनी छड़ी किसी और की नाक तक क्यों पहुंचा रहे हैं। आखिर आप उस आदमी को क्यों उठाना चाहते हैं, जो नहीं उठना चाहता और क्यों उस आदमी के गुनाहगार बन रहे हैं जो आपके मजहब का नहीं है लेकिन रात के 2 बजे उसको उठना पड़ रहा है।
अच्छा हो कि मुस्लिम रहनुमा बैठकर इस पर संजीदगी से बात करें, कम से कम मिलीजुली आबादी वाली जगहों पर वो ये तय करें कि रात के 2-2:30 उनकी वजह से किसी और को ना जगना पड़े या कोई परेशानी ना हो। आखिर लोग तब भी रोजे रखते थे जब लाउडस्पीकर नहीं थे लेकिन लाउडस्पीकर आने पर हमने इन्हें सहूलियत के लिए अपनाया तो अब अलार्म घड़ी और मोबाइल में अलार्म जैसी इससे बेहतर तकनीक आने पर उसे छोड़ा भी जा सकता है।
आप
मुझे
गलत
साबित
कर
सकते
हैं
हाल
ही
में
तीन
तलाक
का
मामले
में
देखा
गया
कि
इस
तरह
के
तमाम
आंकड़े
आए
जिनसे
बताया
गया
कि
दरअसल
हिन्दुओं,
ईसाइयों
और
दूसरे
मजाहिब
में
तलाकें
ज्यादा
होती
है
और
मुसलमानों
में
कम।
इसी
तरह
से
आसानी
से
कहा
जा
सकता
है
कि
मस्जिदों
के
मुकाबले
मंदिर
कितनी
ज्यादा
तादाद
में
है
और
उनका
शोर
भी
कहीं
ज्यादा
है।
ये
भी
बताया
जा
सकता
है
कि
मंदिरों
में
लाउडस्पीकरों
का
इस्तेमाल
कितना
ज्यादा
है
अंखड़
रामायण
का
पाठ
24
घंटे
तक
चलता
है
या
कोई
और
उदाहरण
दे
सकते
हैं..
लेकिन
इस
तरह
हम
अगर
हर
चीज
को
किसी
दूसरी
चीज
से
जोड़ेंगे
तो
दुनिया
की
हर
चीज
को
अपने
हिसाब
से
सही
या
गलत
साबित
कर
सकते
हैं
पर
क्या
इस
तरह
से
कभी
किसी
मसले
का
कोई
हल
हो
सकता
है?
पिछले कुछ दिनों से लाउडस्पीकर पर बहस को लेकर मुझे भी लगता है कि बहुसंख्यक वर्ग के लोग अपने धार्मिक स्थलों से लाउडस्पीकर उतारने या आवाज कम करने की पहल करते तो बेहतर होता, या फिर सभी धर्मों के रहनुमा बैठ कर कोई फैसला लेते.. अच्छा तो ये होता कि हम इन मामलों में सोए रहने के बजाय पहले जागने की होड़ करते। खैर वो सब होता नहीं दिख रहा तो ऐसे में अच्छा हो कि मुस्लिम रहनुमा ही इस पर कोई पहल करें और रमजान के महीने में बड़ा दिल दिखाते हुए लाउडस्पीकरों की आवाजों पर कुछ नियम कानून अपनी तरफ से बनाएं.
नहीं तो जैसे चल रहा है, चल ही रहा है.. जिसे जिस वक्त जगाना हो जगाए, जिस वक्त मन करे लाउडस्पीकर चलाए। वैसे भी आस्था के मामले में आजकल बोलकर लोग सिवाय पिटने के कुछ और नहीं पा रहे हैं, तो आस्था आखिर में यही बचता है कि आस्था का मामला है चुप हो जाएं...