गौरक्षकों पर पीएम मोदी का बयान, 'बचाएगा या डुबोएगा'
लखनऊ। सुरक्षा की गारंटी के बीच गाय मजबूर भी हो चुकी है और मजबूत भी। मजबूर इसलिए क्योंकि मुद्दा सियासी हो गया है.... नफे के लिए नाम तो उछाला जाता है लेकिन न्याय आज तक नहीं मिला। दर-दर भटक कर गाय पॉलिथीन तक खाने को मजबूर हैं। स्लॉटर हाउस में आज भी दबे छिपे तौर पर कटने को मजबूर है। गली मुहल्लों में जाईये...गायों का झुंड घरों से सुबह की पहली रोटी के लिए इंतजार करने लगता है। कई बार रोटी के बजाए लोग लाठियों से मारकर भगा देते हैं। वहीं मजबूत इसलिए हैं क्योंकि गौरक्षा के लिए 1882 से प्रयासों का हवाला दिया जा रहा है।
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ऐसे में मुद्दे समेत मूल विषय उर्फ गाय के मजबूत होने में दोराय नहीं है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गौरक्षा पर बीते शनिवार यानि कि 6 अगस्त को अपना गुस्सा जाहिर किया। हालांकि इसमें पीएम गौरक्षा के समर्थन लेकिन गौरक्षा के नाम पर की जा रही हिंसा की मुखालिफत कर रहे थे। वाकई क्या पीएम मोदी की इस नाराजगी में कुछ गलत है। इसे जनता ही निर्धारित करेगी। लेकिन निर्धारण अपनी अपनी सुविधा के मुताबिक होगा।
गऊ रक्षा के नाम पर संचालित की जा रहीं दुकानें
अपने बयान में पीएम ने कहा कि कई लोगों ने गऊ रक्षा के नाम पर अपनी दुकानें चला रखी हैं। ऐसे में गाय की रक्षा करने में लगे लोग पीएम मोदी से गुस्सा हो गए। ऐसे लोगों का गुस्सा सोशल मीडिया पर भी निकला। इसमें से ज्यादातर लोग ऐसे थे जो अबतक बीजेपी के समर्थन में थे। क्योंकि यह मुद्दा काफी पुराना है। जिसे संभलने के लिए सही रणनीति के साथ-साथ वक्त की भी जरूरत होगी। रही बात हिंसा की तो बदलाव की अपेक्षा बल प्रयोग के साथ की जा रही है क्योंकि कट्टरता दोनों ओर से है।
वहीं राजनीति ने निजी हित के लिए मसाला लगाकर इस मुद्दे को और तेज कर दिया है। जिससे लोग गाय के नाम पर शक्ति प्रदर्शन करने का बहाना भी तलाशते रहते हैं। फिर वो गौरक्षकों के द्वारा पिटाई हो या जम्मू कश्मीर में निर्दलीय विधायक शेख अब्दुल राशिद द्वारा बीफ पार्टी के आयोजन के द्वारा हो। एक का कहना है ''हम बीफ खाना बंद नहीं करेंगे, एक का कहना है कि खाईये गर हमको सबूत मिले तो हम भी अपना आक्रोश जाहिर करेंगे और तरीका क्या होगा वो सभी जानते हैं।''
बदलता रहा स्वरूप!
गौरक्षा की राजनीति का अचानक से हमारे बीच खड़े हो जाना, कुछ नए प्रयोग जैसा नहीं है। क्योंकि हिंदुत्व की राजनीति का यह एक बेहद पुराना पहलू है। गौरक्षा की राजनीति स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज से 1882 में शुरू की थी। हालांकि उस वक्त यह ज़्यादा सामाजिक और थोड़ा धार्मिक राजनीति की खातिर तैयार की जा रही शुरुआती खाका थी। स्वामी दयानन्द एवं आर्य समाज के लोगौं ने पूरे देश में गौरक्षा की चेतना पैदा की थी। सामाजिक स्तर पर आर्य समाज ने दलितों के बीच गौरक्षा चेतना फैलाने की कोशिश की।
1950 के आस पास इसका रूप बदलने लगा
पर, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक गुरु गोलवलकर ने इससे प्रभावित हो कर इसे अपने एजेंडे शामिल कर लिया और 1950 के आस पास इसका रूप बदलने लगा। गोलवलकर से प्रभावित हो इलाहाबाद के स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने गौरक्षा आन्दोलन को एक राजनीति परियोजना में तब्दील कर दिया। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने 1951 में स्वतंत्र भारत के प्रथम संसदीय चुनाव में नेहरु के ख़िलाफ़ हिन्दू बिल एवं गौरक्षा के प्रश्न पर इलाहाबाद के पास फूलपुर से लोकसभा का चुनाव लड़ा। ब्रह्मचारी इस चुनाव में हार गए लेकिन 'गौरक्षा' के प्रश्न को उन्होंने राजनीतिक प्रश्न बना ही दिया।
और गौरक्षा दल मजबूत होता गया
गौरक्षा का राजनीतिक प्रश्न नेहरु और कांग्रेस की जनतांत्रिक राजनीति के बनाम हिन्दुत्ववादी राजनीति के अन्तर को भी जन्म देने लगा। दरअसल ये सवाल से ज्यादा विरोध का एक माध्यम बन गया। जिसमें कांग्रेस ने वामपंथ का लबादा ओढ़कर सर्व धर्म समान की राजनीति को आगे बढ़ा दिया। और इस मुद्दे को आरएसएस से युग्मित विश्व हिंदू परिषद् ने पकड़ लिया।
नेतृत्व ग्वालियर की राजमाता विजयराजे सिंधिया ने किया
धीरे धीरे इसके लिए संगठन बना, समितियां बनी, प्रांतीय संयोजक बनाए गए। जिसका नेतृत्व ग्वालियर की राजमाता विजयराजे सिंधिया ने किया। जिसके बाद हिंसा भी पसरी तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के0 कामराज का घर भी फूंक दिया। हिंसा का दायरा काफी विशाल था जिसकी वजह से तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा को इस्तीफा भी देना पड़ा। और मुद्दा एक ''गौरक्षा''......
सामाजिक हित के लिए जरूरी
हिंदुत्व की इस राजनीति में गौरक्षकों के पक्ष में बोलना एक विशेष वर्ग को विरोध में खड़ा करेगा जिसमें दो राय नहीं है। जबकि गौरक्षको के विरोध में बोलना हिंदुत्व राजनीति पर सवाल के साथ आक्रोश बनकर हावी हो जाएगा। जिसके कई सबूत भी देखने को मिले हैं। ऐसे में लोगों का मानना है कि वैमनस्यता की काट तैयार की जाए जिससे कट्टरता के इतर होकर, विश्वास की इज्जत करके आक्रोश को समाप्त करने की दिशा में पहल की जाए।
गाय के साथ अत्याचार के अन्य पहलुओं को भी समझा जाए, सिर्फ फर्जदायगी की खातिर प्रयास खुद के साथ बेईमानी बल्कि राजनीति के नफे के लिए कार्य करने जैसा ही है। पीएम मोदी के लिए सामाजिक सामंजस्य स्थापित करना एक बड़ी चुनौती है। लेकिन रणनीति के दम पर वे इसमें निश्चित तौर पर कामयाब हो सकते हैं। अत्याचार पर एक वर्ग को झुकना जरूरी है, तभी जाकर शांति की उम्मीद की जा सकती है।
राजनीति के विश्लेषकों की मानें तो 2017 के चुनाव के लिहाज से इस मुद्दे पर बल दिया जा रहा है। लेकिन इसके लिए भाजपा के साथ हमेशा से जुड़े रहे वोटबैंक को नाराज करना पार्टी को महंगा साबित हो सकता है। पीएम मोदी को विवाद की दोनों गिरहों पर समान प्रभाव दर्शाना होगा। ताकि गौरक्षा के नाम पर हो रही हिंसा पर लगाम भी लग सके, साथ ही गाय वास्तव में सुरक्षित भी रह सके।