दिल कमज़ोर है तो ना पढ़ें यह कहानी ...
को ठेठ बोलचाल में 'मोची' कहा जाता है, अंग्रेजी में 'काॅबलर'।
मैं उसे किसी फुटवियर इंज़ीनियर से कम नहीं मानता। आज से दस साल पहले भी उसका ठिकाना फुटपाथ पर था, आधुनिक हो रहे दौर मेंभी उसका दिन सड़क किनारे ही गुज़रता है। उसने जिन कंपिनियों केजूते-चप्पल सिलकर उन्हें फिर से नई जि़ंदगी दी थी, वे आज मल्टिनेशनल बन चुकी हैं।
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एक्शन, रीबाॅक, नाइकी, बाटा जैसे फुटवियर आज एयरकंडीशंड शोरूम में पहुंच गए, पर इन्हें सिलने-संवारने वाले फुटपाथ की पहचान बने रह गए। आंकड़ों का सहारा लें तो भारत विश्व-फुटवियर कारोबार में दूसरे पायदान पर है। विश्व में हो रहे कुल निर्माण में 13 प्रतिशत भूमिका अपने देश की है। हमारे बड़े ग्राहकों में यूरोपियन शहर व संयुक्त राष्ट्र अच्छी-खासी भूमिका निभाते हैं।
मुंबई, चेन्नई, सानीपत, और कानपुर चमड़ा उद्योग में चोटी पर माने जाते हैं। गांवों से लेकर शहरों तक जूते-चप्पल सिलने वालों की पहचान लगभग एक सी रही है। उनके औज़ारों में ब्रश, पाॅलिश, बड़ी सुई, रील-धागा और एक आयरन सटैंड शामिल रहता है।
'रेड टेप, खादिम्स, बाटा, लिबर्टी जैसे भारतीय ब्राण्ड्स आज दुनिया भर में पसंद किए जाते हैं। फुटवियर इंडस्ट्री आज एक अरब दस करोड़ लोगों को सीधे रोजगार दे रही है। हैरानी की बात है कम दाम से लेकर हाई-रेंज फुटवियर्स का रिपेयरिंग चार्ज आज भी 10-40 रूपये तक है। महंगाई का चार्ट तो तेजी से बढ़ता गया पर इन मोचियों का चार्ज आज भी व्यवहार और पहचान के फेर में फंसा हुआ मालूम होता है।
जहां एक ओर विश्व के नंबर एक फुटवियर इंपोर्टर का तमगा अमेरिका को हासिल है वहीं एक्सपोर्टर की लिस्ट में चाइना का अपना दबदबा है। वहां के मोची साइनबोर्ड लगाकर शान से अपनी सेवाएं देते हैं।
भारत
जहां
अब
विदेशी
स्टोर
खुलने
का
रास्ता
साफ
हो
रहा
है,
हालात
ये
हैं
कि
फुटपाथ
पर
बैठे
'फुटवियर
इंज़ीनियर्स'
को
यहां
के
नगर
निगम
अतिक्रमण
के
पहाड़े
पढ़ाकर
नौ
दो
ग्यारह
कर
देते
हैं।
क्या
हम
बिना
मोची
के
फटे
जूते
सिलने
की
कल्पना
कर
सकते
हैं..
जब
तक
कि
हमारे
यहां
बिकने
वाले
हर
जूते-चप्पल
'वुडलैंड-रेडचीफ'
जितने
मजबूत
न
हों।