चाइनीज लाइटों के सामने पड़ी पारंपरिक दियो की चमक फीकी
(रायपुर)
छत्तीसगढ़
में
दीवाली
पर्व
धूमधाम
से
मनाने
की
तैयारी
शुरू
हो
गई
है।
कुंभकार
परिवार
के
सदस्य
मिट्टी
के
ग्वालिन,
दीया
आदि
तैयार
करने
में
जुटे
हुए
हैं।
राजधानी
रायपुर
के
आसपास
स्थानीय
कुम्हारों
द्वारा
निर्मित
देसी
दीये
पर
महंगाई
और
चीन
से
आई
रंग-बिरंगी
लाइटें
भारी
पड़
रही
हैं।कहा
जा
रहा
है
कि
प्राचीन
परंपरा
पर
आधुनिकता
हावी
हो
रही
है।
इसका
असर
कुम्हार
परिवारों
पर
पड़
रहा
है।
उन्हें
धीरे-धीरे
अब
रोजी-रोटी
की
चिंता
सताने
लगी
है।
चूंकि बाजार में आकर्षक वस्तुओं की मांग ज्यादा है, जिसके चलते उनके द्वारा निर्मित मिट्टी के पात्रों को खरीदने में लोग रुचि नहीं दिखा रहे हैं। राजधानी के रायपुरा व बीरगांव में करीब 150 कुम्हार परिवार रहते हैं, जो मूर्ति बनाकर बेचने का व्यवसाय करते हैं।
एक कुम्हार परिवार करीब चार-पांच हजार दीयों का निर्माण करता है। इस हिसाब से ये परिवार अब लगभग पांच लाख दीयों का ही निर्माण करते हैं। वे इसे महासमुंद, रायपुर और भिलाई में बेचते हैं। बावजूद इसके, बहुत सारे दीये बच जाते हैं। इनका कहना है किलोगों पर आधुनिकता हावी हो रहा है। बाजार में चीनी आइटम देख लोग उसेी चमक पर लुभा जाते हैं। इसका प्रभाव उनके व्यवसाय पर पड़ रहा है।
रायपुरा स्थित कुम्हारपारा निवासी अशोक कुम्हार (44) ने बताया कि मूर्ति बनाना और बेचना उसका पुस्तैनी धंधा है। नौवीं तक पढ़े अशोक ने बताया कि उनके परिवार के सभी सदस्य मूर्ति बनाने में सहयोग करते हैं। दिवाली के लिए उन्होंने 6000 दीये बनाए हैं। वह शहर में 10 रुपये का 15 नग दीया बेचते हैं। उनके पास दुर्ग व भिलाई से भी व्यापारी पहुंचते हैं, जिन्हें वह 10 रुपये में 12 दीया देते हैं।
अशोक ने बताया कि शहर में मिट्टी मिलने में समस्या आती है। एक बैलगाड़ी मिट्टी 200 रुपये में मिलता है। इसके अलावा रंग में भी अधिक लागत आती है। एक दिन का रोजी मुश्किल से 150 रुपये निकल पाता है।
बीरगांव के देवेंद्र कुम्हार ने बताया कि एक रुपये किलो में चावल मिल रहा है। जबकि दो से ढाई रुपये में सिर्फ एक किलो भूसा मिलता है। मिट्टी से निर्मित पात्रों को पकाने के लिए वे भूसा, पैरा और कंडा आदि का उपयोग करते हैं। ये सामग्री वे बाजार से खरीदते हैं। उन्होंने कहा, "जब कच्चा मटेरियल महंगा मिलेगा तो कोई सस्ते में दीये कैसे बेचेगा?"
इंडो-एशियन न्यूज