Dalbir Singh's Biography: जनरल दलबीर सिंह की लाइफ हिस्ट्री
नई दिल्ली।सेना प्रमुख जनरल दलबीर सिंह का इस अहम पद तक पहुंचना एक गांव के ऐसे युवक की आकांक्षाओं की प्रेरणादायक कहानी है जो एक दिन सेना में अधिकारी बनना चाहता था।
कड़े परिश्रम, दृढ़ निश्चय और समर्पण के भाव से वह न केवल सेना में एक अधिकारी बनने में सफल हुए बल्कि आज वे सेना में सर्वोच्च जनरल के पद पर है। आखिरकार उन्होंने 31 जुलाई, 2014 को नई दिल्ली में 26वें सेना प्रमुख का पदभार ग्रहण किया।
उनका जीवन सपनों की कहानी है। ऐसा सपना जो सैंकड़ों युवा देखते हैं लेकिन कुछ ही इन सपनों को हासिल कर पाते हैं।
भारत के नए सेना प्रमुख की उपलब्धियां उन युवाओं के लिए निश्चित ही प्रेरणादायक होगी जो खुद पर और अपने सपनों में विश्वास रखते हैं और उन्हें साकार करने के लिए कार्य करते हैं ।
मानेकशॉ के बाद तीसरे गोरखा सेना प्रमुख
जनरल एसएचएफजे मानेकशॉ (बाद में फील्ड मार्शल के रैंक से सम्मानित किए गए) और जनरल जीजी बेवूर के बाद वे तीसरे सेना प्रमुख है जो गोरखा ब्रिगेड में शामिल थे या इस ब्रिगेड से संबंधित थे।
जनरल ने चुनी थी गोरखा ब्रिगेड
जनरल दलबीर सिंह को जून 1974 को 4/5 जीआर (एफएफ) में कमीशन दिया गया था। जनरल दलबीर सिंह का गोरखा रेजीमेन्ट को चुनने के बारे में कहना है कि वह मेरा एक सोचा-समझा फैसला था क्योंकि मैं केवल पैदल सेना (इनफैन्ट्री) में ही शामिल होना चाहता था।
सेना की पुरानी परंपरा का हिस्सा
19 अप्रैल, 2011 से उन्हें 5 जीआर (एफएफ) रेजीमेन्ट का कर्नल और एक जनवरी, 2014 से गोरखा ब्रिगेड का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। हालांकि भारतीय सेना की पुरानी परंपराओं के अनुसार, सेना प्रमुख को कई अन्य सैन्य और रेजीमेन्ट के ‘सम्मानित कर्नल' बनाया जाता है।
हरियाणा ने बढ़ाया है सेना का गौरव
जनरल दलबीर सिंह का जन्म 28 दिसम्बर, 1954 को हरियाणा में झज्जर जिले के बिशन गांव में हुआ था। हालांकि क्षेत्र के अन्य गांव की तरह ही खेती प्रधान गांव होने के बावजूद इस जाट बहुल गांव में से अधिक संख्या में युवक सेना में शामिल होते हैं क्योंकि वीरता के गुण वे अपने पूर्वजों से पाते हैं।
पिता और चाचा भी रहे सेना का हिस्सा
उनके पिता और चाचा अपने-अपने पिता और चाचाओं की तरह ही सेना में अधिकतर अश्वारोही(केवलरी) और पैदल(इनफैन्ट्री) सेना में शामिल हुए हैं। युवा दलबीर के लिए भी सेना में शामिल होना लाजिमी था। कौन जानता था कि कुरुक्षेत्र का यह वीर एक दिन भारतीय सेना का जनरल बनेगा। यह एक संयोग ही है कि कुरुक्षेत्र महाभारत के युद्ध और अपने वीर योद्धाओं के लिए प्रसिद्ध है।
ईटों का बना दो कमरों वाला स्कूल
भारतीय सेना का प्रमुख और जनरल बनने वाले जनरल सुहाग के शुरूआती दिन काफी सादगीपूर्ण थे। दलबीर की शुरूआती शिक्षा गांव के ईंटों वाले दो कमरों के प्राथमिक विद्यालय में हुई। वह बताते हैं कि वे कमरे भी बड़ी क्लास के बच्चों के लिए थे। उनके सहित दूसरे बच्चों को पेड़ के नीचे जमीन पर बैठाया जाता था।
अपने परिवार की मदद
अधिकतर गांवों में युवाओं का जीवन आज भी शायद वैसा ही है। प्रत्येक गांव में खाली समय में युवाओं को खेती के कामों में हाथ बंटाना पड़ता है। युवा दलबीर भी अपने परिवार की अपने तरीके से मदद करते थे।
चित्तौगढ़ से हुई शुरुआत
राजस्थान का सैनिक विद्यालय, चित्तौड़गढ़ (एसएससी) भी इनमें से एक था। जनरल दलबीर के ताऊ जी विद्यालय में घुड़सवारी सिखाते थे और उन्होंने दलबीर को सैनिक विद्यालय में पढ़ाने का सुझाव दिया। इस तरह 15 जनवरी, 1965 को कैडेट दलबीर सिंह के सैन्य जीवन की शुरूआत हुई।
टीचर्स ने दिखाई राह
गांव बिशन से चित्तौड़गढ़ विद्यालय तक की उनकी उड़ान से सेना में भविष्य के एक अधिकारी का भाग्य तय हुआ। उस समय के बेहतर शिक्षकों की देखरेख में दलबीर सिंह के मन में प्रतिबद्धता, साहस और फौलादी इरादों को भरने का कार्य किया गया।
आज भी याद करते हैं जनरल को
उनके टीचर्स जनरल दलबीर सिंह के सेना का प्रमुख बनने की घटना पर फूले नहीं समाते हैं। इन टीचर्स में से ही एक हैं 90 वर्षीय के. एस. कैंग जो अब 90 वर्ष के है दलबीर सिंह के सेना प्रमुख बनने की खबर सुनकर भाव-विभोर हो गए थे। वहीं एक और टीचर राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित श्री एच. एस. राठी कैडेट दलबीर को ‘एक बहुत ही अनुशासित, कड़ा परिश्रमी और आज्ञाकारी छात्र' बताते हैं।
बास्केट बॉल के शौकीन
वर्ष 1996 में रिटायर होने वाले राठी की मानें तो जनरल दलबीर सिंह खेल-कूद में भी बहुत अच्छे थे और बहुत ही बढ़िया बास्केटबॉल खेलते थे। जिस समय वह नौंवी कक्षा में आए वह लगभग उतने ही लंबे थे जितने वह आज हैं। उन्होंने स्कूल में घुड़सवारी जल्दी ही करनी शुरु कर दी थी इसका फायदा बाद में उऩ्हें अपने जीवन में मिला।
साबित हुए बेहतर एथलीट
एनडीए का परिवेश उनके स्कूल के आगे की जिंदगी थी लेकिन यहां कॉम्पटीशन काफी था। अपने स्कूल में होने वाली आउटडोर तथा खेल संबंधी दूसरी गतिविधियों में भाग लेते रहने के कारण वे एनडीए के जल्दी ही बहुत अच्छे एथलीट तथा उत्कृष्ट खिलाड़ी बन गये। घुड़सवारी में कुशलता के कारण वे एनडीए के पोलो और घुड़सवारी क्लब के अध्यक्ष भी बने।
परिवार को है गर्व
जून 1974 में लेफ्टिनेंट दलबीर सिंह का सेना में अफसर बनने का सपना पूरा हुआ। यह एक ऐसी उपलब्धि थी जिस पर उनके पिताजी, दादाजी, चाचाओं, ताऊओं तथा अन्य सभी परिजनों को गर्व था।
कई सैनिक हुए शहीद
‘ऑपरेशन पवन' के समय जब उनकी बटालियन श्रीलंका गई तो वह आईएमए में मेजर के रुप में अनुदेशक थे। यूनिट के वहां पहुंचने के केवल दो दिनों के बाद, जाफना के एक बड़े ऑपरेशन में कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल इंद्र बल सिंह बावा सहित कई अन्य अधिकारी तथा सैनिक मारे गये।
शहादत की खबर देनी थी माता-पिता को
उन्हें आज भी वह समय याद है जब उन्हीं को कर्नल बावा के माता-पिता, जो देहरादून के निकट रहते थे, को उनके वीरगति को प्राप्त होने का दुख:द समाचार देने का काम सौंपा गया था। अपनी यूनिट पर संकट आया देखकर उन्होंने सेना मुख्यालय से खुद को बटालियन वापस भेजने का निवेदन किया जिसे मान लिया गया।
बढ़ाया हौसला
अगले 24 घंटे के अन्दर ही, अपनी यूनिट में वापस आकर उन्होंने कंपनी कमांडर का काम संभाल लिया। इसके बाद वे अपनी यूनिट के साथ तब तक डटे रहे जब तक अंतत: दो वर्षों के बाद यूनिट को वहां से हटाया नहीं गया। उनके आने से पहले कई झटके खा चुकी सेना का मनोबल काफी ऊंचा उठा।
हर जिम्मेदारी पर खरे उतरे जनरल
जैसे-जैसे समय बीतता गया उनका पद भी बड़ा होता चला गया और उनमें विशिष्ट समावेश भी हुआ। करियर संबंधी विभिन्न सेवा कोर्स करने के अलावा उन्होंने अपनी शैक्षिक योग्यताओं में कुछ मास्टर डिग्रियां भी जोड़ी जिनमें उस्मानिया यूनिवर्सिटी से ‘प्रबंध अध्ययन' और चेन्नई यूनिवर्सिटी से प्राप्त ‘स्ट्रेटेजिक स्टडीज' डिग्रियां शामिल हैं।
साबित हुए बेहतर लीडर
उन्होंने कारगिल-द्रास सेक्टर में उच्च अक्षांश क्षेत्र में नियंत्रण रेखा पर तैनात करने के लिए माउंटेन डिवीजन का बड़ी कुशलता से नेतृत्व किया। इस विशिष्ट कार्य के लिए इन्हें अति विशिष्ट सेवा मेडल (एवीएसएम) दिया गया।
पूर्वी सेना कमांडर
16 जून 2012 से 31 दिसंबर 2013 तक पूर्वी सेना कमांडर नियुक्त किया गया और एक जनवरी 2014 को उन्हें उप सेना प्रमुख (वीसीओएएस) बनाया गया। उप-सेना प्रमुख के रूप में उनका कार्यकाल 7 महीने का रहा और वे उस हर चीज़ के प्रति जागरूक हैं जिन्हें वह जानने की जरूरत समझते हैं और जो हर दृष्टि से सेना के लिए शुभ संकेत देता हो।
दोस्त ने दी सलाह
जनरल सुहाग कैप्टन थे जब उनको आर्मी स्कूल ऑफ मैकेनिकल ट्रांसपोर्ट, बैंगलौर में बतौर अनुदेशक नियुक्त किया गया। तब तक उनकी शादी नहीं हुई थी और वर्ष 1982 के एशियाई खेलों के दौरान दिल्ली छुट्टी पर आए थे। उनके एक दोस्त ने सुझाव दिया कि उनके लिए एक रिटायर्ड नेवी ऑफिसर की बेटी का रिश्ता है, जिस पर उन्हें विचार करना चाहिए। उनकी शादी सात फरवरी, 1984 को दिल्ली में हुआ।
बेटी ने दिया था गिफ्ट
सुहाग के घर में ऐसा भी कोई है, जिसे अपने तरीके से रहने की आज्ञा है। उसे जनरल के अनुसार नहीं चलना, बल्कि वह अपने अंदाज से रह सकता है, खेल-कूद सकता है। जूनो उनकी बेटी की ओर से उन्हें मिला एक गिफ्ट है। जूनो पूरे घर में तब तक खेल-कूद करता रहता है, जब तक वह अपने ‘मास्टर' को घर आते नहीं देखता।