'बसपा बनाम सभी, फिर भी 'हाथी' भारी, जानिए क्यों?
लखनऊ। बहुजन समाज पार्टी को राष्ट्रीय महासचिव और उत्तर प्रदेश विधानसभा में विपक्ष के नेता स्वामी प्रसाद मौर्या के रूप में झटका मिलने के साथ कांशीराम के करीबी और दूसरे राष्ट्रीय महासचिव आर के चौधरी से भी हाथ धोना पड़ा। जिसे लेकर कयासों का दौर शुरू हो गया, चाय पर चर्चा का आयोजन होने लगा कि अब बसपा की हार निश्चित है।
क्यों स्वामी प्रसाद मौर्या नहीं बन सकते BJP से सीएम कैंडिडेट!
लेकिन क्या वाकई बहुजन समाज पार्टी को पटखनी देना इतना आसान है। क्या वाकई किसी नेता के पलायन से बसपा का अस्तित्व संकट में फंस जा रहा है। इन्हीं तमाम बातों पर वन इंडिया की ग्राउंड जीरो की रिपोर्ट-
नहीं दिखी जनाधार में कमी
यूपी में 2017 विधानसभा चुनाव के लिहाज से सत्ता की प्रबल दावेदार बसपा मानी जा रही है। लेकिन इतना जरूर है कि वरिष्ठ नेताओं के पलायन ने संभावित 'विजयी होने वाले दल' की आम धारणा पर छिटपुट वार किए हैं। क्योंकि जहां एक ओर स्वामी प्रसाद मौर्या बसपा में मौर्या समाज और आरके चौधरी पासी समाज के कद्दावर नेता माने जाते रहे हैं। ऐसे में उनके द्वारा पार्टी का साथ छोड़ना कुछ फीसदी नुकसान तो जरूर करेगा लेकिन बड़ा नहीं।
बसपा- नेताओं का दल न होकर कार्यकर्ताओं का दल
लेकिन राजनीतिक अवधारणा के मुताबिक दूसरे दलों की तरह बसपा- नेताओं का दल न होकर कार्यकर्ताओं का दल है। यहां जातीय नेता संबंधित जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिसकी वजह से पार्टी को बड़े स्तर का नुकसान हो, या किसी नेता के निकलने के बाद पार्टी पर विशेष असर हो ऐसा संभव नहीं हो पाता। इसके लिए तमाम पुराने नेता इतिहास के रूप में गवाह हो गए हैं जिन्होंने पार्टी को तो छोड़ दिया लेकिन पार्टी के जनाधार में कुछ खासी कमीं नहीं आई।
1990 से अब तक कई दिग्गज नेताओं ने पार्टी छोड़ी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा
आपको बता दें कि 1990 के दशक में कांशीराम के सबसे करीबी माने जाने वाले जंग बहादुर और राज बहादुर ने पार्टी छोड़ दी। पार्टी में इन दोनों का कद काफी मायने रखता था। राज बहादुर ने पार्टी छोड़ने के बाद बसपा (आर) एवं जंगबहादुर ने बहुजन समाज दल बनाया। लेकिन हो सकता है कि आपमें से कई लोगों ने इसका नाम ही न सुना हो।
नेताओं का ही अस्तित्व मिट गया
दरअसल पार्टी छोड़ने के बाद इन दोनों ही नेताओं को उम्मीद थी कि बसपा चरमराकर बैठ जाएगी, जनाधार समाप्त हो जाएगा। लेकिन यह महज मुगालते के इतर कुछ भी नहीं था। कमोबेश सारी संभावनाओं पर पानी फिर गया और उत्तर प्रदेश की राजनीति से इन दोनों के दल व इन नेताओं के नाम दोनों ही पलायन कर गए।
राजनीति के तमाम समीकरणों में ठहर न सकीं ये पार्टियां
कुछ इसी तर्ज पर कांशीराम के दूसरे अन्य करीबी डॉ. मसूद जो कि 1994 में बसपा-सपा गठबंधन सरकार में कैबिनेट मिनिस्टर रहे उन्होंने भी तेजी से आगे बढ़ने की चाह में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी का गठन किया लेकिन डॉ0 मसूद समेत उनका दल लापता की श्रेणी में जा चुका है। 2001 में आरके चौधरी के द्वारा राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी हो समीकरणों वाली इस दुनिया में टिक न सकीं। लेकिन 1995 में सोनेलाल पटेल द्वारा गठित अपना दल, 2002 में ओम प्रकाश राजभर के द्वारा सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी कुछ क्षेत्रों में सक्रिय हैं।
'बहुजन हिताय से सर्वजन सुखाय तक'
कहीं न कहीं नेताओं के पतन के बाद भी प्रभावित न होने वाले जनाधार के पीछे की वजह मायावती के द्वारा सामाजिक समूहों के भीतर बनी पैठ है। जिस पर कांशीराम के बाद माया ने तवज्जो दिया। 90 से लेकर वर्ष 2016 तक जितने भी नेताओं ने बसपा से खुद को अलग कर लिया, उन पर एक लंबे आंकलन के बाद वे महज जातीय पुतलों के इतर कुछ भी नहीं नजर आए।
दलितों की पार्टी
वो भी इसलिए क्योंकि बसपा का मुख्यतया ये मकसद था कि एक ओर संदेश यह जाए कि दलितों की पार्टी सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय पर यकीन रखती है। लेकिन यही नारा इससे पूर्व तक बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय रहा है। आज जातीय रेनबो के रूप में सतीश चंद मिश्रा, नसीमुद्दीन सिद्दीकी देखे जा रहे हैं।
बसपा अभी भी चुनावी रेस में मजबूत स्थिति में
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो इस बात में कोई दो राय नहीं कि बसपा अभी भी चुनावी रेस में मजबूत स्थिति में है। हां सवर्ण वर्ग जिसे अपने साथ मिलाने की मायावती कोशिश कर रही थीं उसमें से कुछ फीसदी दयाशंकर मामले की वजह से भाजपा के पाले में खिसक गया है। लेकिन सवर्ण वोटबैंक चुनाव के वक्त में मजबूत स्थिति वाली पार्टी में खुद ब खुद गिर जाता है।
बसपा किस रणनीति के तहत आगे बढ़ेगी
जबकि सपा यूपी में सत्तारूढ़ है तो भाजपा अपने एनडीए अवतार के साथ केंद्र में। दोनों के दावे,वायदों को बसपा के साथ जुड़ने वाले समूहों के इतर अन्य भी भलीभांति समझ पा रहे हैं। ऐसे में देखना यह है कि बसपा किस रणनीति के तहत आगे बढ़ती है। वहीं दूसरी ओर स्वामी प्रसाद मौर्या भाजपा में पलायन जरूर कर गए हैं लेकिन मौर्या समुदाय अभी भी खुद को बसपा के साथ ही फिट देख पा रहा है, बाकी चुनाव के नतीजे तय करेंगे कि कौन किस पर भारी है।