अंधविश्वास या आस्था: मन्नत पूरी तो नवजात को नदी में तैराने की परंपरा
बैतूल। मन्नत पूरी होने पर लोग देवी देवाताओं की पूजा-अर्चना करते हैं, प्रसाद और चढ़ावा चढ़ाते हैं। मगर मध्य प्रदेश के बैतूल में मन्नत पूरी होने पर नवजात शिशुओं को पूर्णा नदी में तैराने की परंपरा है। पूर्णा नदी को गोद भरने वाली देवी कहा जाता है। मान्यता है कि पूर्णा देवी की आराधना से दंपति की मनोकामना पूरी होती है और उनकी गोद भर जाती है। जिन दंपति की मनोकामना पूरी होती है, वे कार्तिक मास की पूर्णिमा के बाद यहां आकर विशेष अनुष्ठान करते हैं। यहां काफी लोग जुटते हैं, इसलिए यहां एक पखवाड़े तक मेला लगता है।
उसकी मनोकामना पूरी हुई। इस बार वह यहां अपने बच्चे को लेकर आई है और परंपरा निभाते हुए अपने बच्चे को पालना में डालकर नदी में तैराया है। उससे जब पूछा गया कि क्या उसे आशंका नहीं थी कि उसका बच्चा पालना के साथ कहीं पानी में डूब न जाए? उसका जवाब था कि पूर्णा देवी के आर्शीवाद से उसकी गोद भरी है, इसलिए उसे पूरा विश्वास है कि पूर्णा की गोद में पड़े बच्चे का नुकसान नहीं हो सकता। लीना ने कहा कि मैंने तो अपने बच्चे को मां पूर्णा के आंचल में अर्पित किया है, डर काहे का!"
इसे अंधविश्वास कहें या आस्था, मगर कार्तिक मास में लगने वाले मेले में सैकड़ों दंपति आकर अपनी मन्नत पूरी होने पर बच्चों के जीवन को खतरे में डालकर नदी में तैराते हैं। मेला समिति के सदस्य सुरेश तिवारी का कहना है कि यह मेला और नवजातों को तैराने की परंपरा वर्षो से चली आ रही है, जिसे लोग निभाते आ रहे हैं। बच्चों को नदी में तैराना आस्था का मामला है। यहां कोई तर्क नहीं चलता। बच्चों को पालना में तैराने के काम में कुछ चुनिंदा लोग लगे हुए हैं। वे पहले बच्चे को हवा में उछालते हैं, जयकारे लगाते हैं और उसे माला पहनाने के बाद पालने में डालकर नदी में तैरते के लिए छोड़ देते हैं। प्रशासन की ओर से मेले में आने वाले लोगों की सुरक्षा के लिए पुलिस जवानों की तैनाती की गई है, मगर परंपरा के नाम पर बच्चों की जिंदगी को खतरे में डालने के इस खेल पर न तो किसी का ध्यान है और न ही विरोध का स्वर कहीं सुनाई देता है।