बिहार दिखा रहा कृषि क्रांति की राह, केड़िया गांव बन रहा जैविक खेती का चैंपियन
जमुई। आजकल देशभर से किसानों की बदहाली की खबरें आ रही हैं। किसानों की समस्या देश के लिये गंभीर चिंता की बात हो गयी है। लेकिन जमुई, बिहार का केड़िया गांव किसानों की एक अलग ही कहानी कह रहा है- यह कहानी है बदलाव की, किसानों द्वारा अपने बेहतर भविष्य के लिये किये जा रहे प्रयासों की।
पर्यावरण पर काम करने वाली संस्था ग्रीनपीस की मदद से इस गांव के लोग पिछले दो सालों से कुदरती खेती के तरीक़ों को अपना रहे हैं और अपनी मिट्टी और खेती को बचाने की कोशिश में सफल भी हो रहे हैं।
रासायनिक खेती के खतरों को समझा
संयुक्त राष्ट्र संघ के 2015 को मिट्टी वर्ष के रूप में मनाने की घोषणा करने के काफी पहले दुनियाभर में रसायनिक खेती से खेतों पर, किसानों के स्वास्थ्य पर और लोगों की खाद्य सुरक्षा पर दुष्प्रभाव नजर आने लगे थे।
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सबसे पहले अनछ यादव ने शुरू की जैविक खेती
बिहार के इस छोटे से गांव केड़िया के किसान भी इस खतरे को महसूस कर रहे थे। ऐसे में रसायनिक खाद की खामियों और जैविक खेती के लाभ को सबसे पहले 70 वर्षीय अनछ यादव ने समझा। अनछ यादव एक मध्यम वर्ग के किसान हैं जो धान, रबी, प्याज जैसी फसलों को उपजाते हैं।
अनछ यादव बताते हैं, 'हमने अमृतपानी बनाना सीखा और सबसे पहले उसका इस्तेमाल मिर्च की खेती में किया। फ़ायदा इतना जबरदस्त दिखा की हम हैरान हो गए, और दूसरी फ़सलों में भी लगाने लगे। कंपनी वाले रसायनिक खाद से मकई का पत्ता जल जाता था - भले ही रसायनिक खाद वाली फसल तुरंत बड़ी हो जाती है लेकिन वह अधिक गर्मी और पानी को झेल नहीं पाती। दूसरी ओर हमने देखा, जैविक खादों से फसल धीरे-धीरे बढ़ती है, पर गर्मी-पानी की मार को भी बड़े आराम से झेल जाती है।'
अब सारे किसान खुद बनाते हैं जैविक खाद
अनछ यादव को देखकर आज इस गांव के लगभग सभी किसान कुदरती खेती के अलग अलग तरीके अपनाकर खेती में सुधार देख रहे हैं। केड़िया एक जैविक ग्राम के तौर पर मशहूर हो रहा है। किसान अपने घर में ही जैविक खाद और कीट-नियंत्रक दवाइयों का निर्माण करते हैं। वे अपनी खेती के लिये बाजार में बिकने वाले रसायनिक चीजों पर निर्भर नहीं हैं।
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गांव के किसान महेन्द्र यादव कहते हैं, 'केड़िया गांव को अब जैविक खेती से फायदा मिलना शुरू हुआ है। सालों से रसायनिक खेती करने और उसके कुप्रभावों को झेलने के बाद हमारे पास और कोई विकल्प नहीं बचा था। कुदरती खेती नहीं होने पर मनुष्य तो कमजोर हो ही रहा है, साथ में मिट्टी और फसल भी। रसायानिक खाद वाली फसल दोनों की सेहत के लिये नुकसानदेह साबित हो रही थी।'
लौट रही है मिट्टी की ताकत, किसानों के पास बच रहा पैसा
इस साल पहली बार गांव के ज्यादातर किसानों ने सालभर की फसलों में जैविक खाद का ही इस्तेमाल किया है। इससे मिट्टी की सेहत बेहतर हुई है, मिट्टी का रस लौट रहा है। रसानयिक खाद के दुष्प्रभाव से लुप्त होते जीव-जंतु - जिनकी उपस्थिति माटी के स्वस्थ व जीवित होने का प्रमाण हैं - आज लौटते नजर आ रहे हैं।
साथ ही, किसानों पर लागत का बोझ भी घटा है। पहले एक फसल में प्रति एकड़ पांच हजार रुपये तक लग जाते थे, लेकिन अब जैविक खेती की वजह से यह पैसा बच जाता है। दो साल पहले तक गांव वाले सूद पर पैसा लेकर रसानयिक खाद और कीटनाशक खरीदते थे। खेती बारिश के भरोसे टिके होने के कारण हमेशा घाटे की आंशका बनी रहती थी। फसल नहीं होती थी तो महाजन का सूद भरना भी कठिन हो जाता था।
जीवित माटी किसान समिति
अनछ जी बताते हैं, 'हमें पहले सरकारी स्तर पर हमेशा उपेक्षा का दंश झेलना पड़ता था। फिर हमने किसानों का एक संगठन बनाया और नाम दिया जीवित माटी किसान समिति। अब संगठन की ताकत का कमाल है कि गांव में मंत्री भी आते हैं, कृषि विभाग के अधिकारी भी मदद करने का प्रस्ताव देते हैं। संगठन की वजह से ही जैविक खाद के लिये 56 लोगों को वर्मी-कम्पोस्ट बेड मिल पाया। पहले हमें सरकारी कर्मचारी कहते थे कि एक पंचायत में सिर्फ 9 वर्मी-कम्पोस्ट बेड दिया जाता है, जबकि यह योजना कोटा आधारित नहीं मांग आधारित है। ग्रीनपीस की सहायता से संगठन ने दबाव बनाए रखा और आज गांव के किसानों के पास 282 वर्मी-कम्पोस्ट बेड हैं।'
संगठन की ताकत को 45 वर्षीय राजकुमार यादव थोड़ा और बेहतर ढ़ंग से समझाते हैं, 'किसानों ने संगठित होकर सिर्फ वर्मी-कम्पोस्ट बेड ही नहीं लिया बल्कि दूसरी सरकारी योजनाओं को भी बिना घूस दिये हासिल किया। गांव के लोगों के पास वंशावली (एलपीसी) नहीं थी, जिसकी वजह अक्सर सरकारी योजनाओं से जुड़ना संभव नहीं था। आज हालत यह है कि कर्मचारी घर-घर आकर वंशावली दे रहे हैं।'
केड़िया में कैसे होती है जैविक खेती
जैविक खेती के लिये वर्मी खाद तैयार किया जाता है। इसके लिये गोबर चाहिए लेकिन गोबर तो जलावन के रूप में जल जाता था। इसलिए किसानों ने दो चीज़ें की - पहली यह कि 11 बायोगैस प्लांट लगवाए जिससे धुआंरहित ईंधन तो मिला ही, साथ में अवशेष घोल में काफी मात्रा में गोबर भी बचा।
दूसरा, उन्होंने 282 वर्मी-कम्पोस्ट बेड लगाए जहां इस घोल को खेती से मिले अन्य जैविक कचरे में मिला कर केंचुओं द्वारा जैविक खाद बनाया जाता है।
यही नहीं, किसानों ने मनरेगा के तहत पक्के पशु शेड तैयार किये हैं ताकि वह गौ-मूत्र जमा कर सकें। जैविक खेती में गौ मूत्र की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। लेकिन आप सोच सकते हैं, पक्के पशु शेड के न रहते, गौ मूत्र जमा करना कितना कठिन काम था! इसी तरह मानव मल-मूत्र को भी खाद में बदलने के लिए इकोसैन शौचालय बनाया जा रहा है।
जीवित माटी किसान समिति का अगला लक्ष्य गांव में 2000 पेड़ लगाने का है। राजकुमार बताते हैं, 'पिछले कुछ सालों में इलाक़े में पेड़ों की बेतहाशा कटाई हुई है। जिससे न केवल गांव का वातावरण प्रदूषित हुआ है बल्कि चिड़ियों और फ़ायदेमंद कीट-पतंगों की संख्या में भरी कमी हुई है। इसके अलावा जैविक खाद बनाने के लिये भी पेड़ की पत्तियों की आवश्यकता होती है। मसलन कीटनियंत्रण में नीम, बबूल, करंज और आक जैसे पेड़-पौधों की ज़रूरत होती है। पौधों से खेतों में नमी भी बनी रहती है। खेतों के मेड़ पर गेंदा फूल लगाने की योजना भी है, जो कीड़ों को अपनी तरफ आकर्षित कर लेते हैं और फसलों का नुकसान नहीं होता। गेंदा फूल की बाजार में अच्छी कीमत भी किसानों को मिल जायेगी।'
पहली बार जैविक खेती के अनुभवों का बांटते हुए जीवित माटी किसान समिति के आनंदी यादव बताते हैं, 'पहली बार गेंहू की खेती में मैंने वर्मी खाद देना शुरू किया था। दूसरे किसान मशीन से सिंचाई कर रहे थे। मैंने खर्च बचाने के लिये पानी नहीं दिया। थोड़ी-बहुत बारिश हुई। जैविक खाद की वजह से मेरे खेत में नमी बनी हुई थी ही, नतीजा यह कि जो लोग मशीन से पानी दिये थे, उनके खेतों से ज्यादा अच्छी ही गेहूं की पैदावार मेरे खेत में हुई।'
छोटे किसानों के लिये भी जैविक खेती बड़ा सहारा
महेन्द्र यादव 45 साल के हैं। वे एक छोटे किसान हैं। उनके 5 लड़के हैं। दो पढ़ाई कर रहे हैं, एक मुंबई में नौकरी करता है और एक गांव में ही राजमिस्त्री का काम करता है। महेन्द्र बताते हैं खेती से हमें उतना लाभ नहीं मिलता। इसलिए बच्चे खेती नहीं करते और शहर में नौकरी करने चले जाते हैं। लेकिन पिछले 2 साल से जैविक खेती करने का परिणाम यह है कि अब हालत थोड़ी-बहुत संभली है। अब हमें जंगल से तेंदू पत्ता और लकड़ी नहीं लाना पड़ता। हम अपने खेतों में धान, गेहूं, मिर्ची, मकई की खेती करते हैं। ट्रैक्टर की हैसियत नहीं होने की वजह से हम बैल से ही खेती का काम लेते हैं।
रसायनिक खेती के नफा-नुकसान पर चर्चा करते हुए महेन्द्र बताते हैं, "रसायनिक खेती से फसल भले ज्यादा होती हो लेकिन किसानों को यह समझना होगा कि हमारी मिट्टी बीमार हो रही है। जैसे ज्यादा अंग्रेजी दवा खाने से आदमी के अंदर बैचेनी बढ़ जाती है, वैसे ही रसायनिक खाद के बेतहाशा इस्तेमाल ने हमारी धरती माँ को बीमार बना दिया है। इसलिए किसानों को कुदरती खेती की तरफ बढ़ना चाहिए। जैविक खेती आर्थिक रूप से भी किसानों के लिये फायदेमंद है। खाद, डीएपी, यूरिया खरीदने में किसानों की कमर टूट जाती है। मुझे पहले एक कट्ठा में 200 रुपये रासानयिक खाद में लग जाता था, लेकिन अब एक पैसा नहीं लगता। हम अपने घर में ही जैविक खाद से लेकर कीटनाशक सब बना रहे हैं। हां, यह बात है कि हमने अचानक से रसायनिक खाद देना बंद नहीं किया बल्कि धीरे-धीरे उसे कम करते गए। आज हम बिना बाजारु खाद का इस्तेमाल किये करेला, भिंडी, खीरा, कद्दू जैसी सब्जियों की खेती भी करते हैं।'
महिलाओं की खास कहानी
सुनीता देवी की उम्र 40 साल है। उनके पिता जी एक खाद कंपनी में ही काम करते थे। सुनिता कहती हैं, हमें कभी यह अहसास ही नहीं था कि रसायनिक खाद से हमारी मिट्टी और फसल को नुकसान हो रहा है, या मिट्टी खराब भी हो सकती है। हम लोग यह सोचते थे कि जितना रसायनिक खाद डालेंगे, उतना ही अच्छी उपज होगी, जबकि सच्चाई यह थी कि रसायनिक खेती से मिट्टी खराब हो गयी, और हमें खुद कई तरह की बीमारियों का सामना करना पड़ा।
सुनीता देवी कहती हैं, 'हालांकि जैविक खेती के इस्तेमाल से शुरू-शुरू में पैदावार कम होती है, रसायनिक खाद की तरह जैविक खेती 'फास्ट फूड' नहीं है। कुदरती खेती में थोड़ी ज्यादा मेहनत की जरुरत है, लेकिन उस मेहनत का फल बहुत मीठा है। उदाहरण के लिये पुआल से गांव में छप्पर खूब बनाया जाता है। पहले ये पुआल बेहद कमजोर होते थे और एक बारिश भी नहीं सह पाते थे। लेकिन जैविक खेती के बाद यही पुआल गर्मी-बारिश भी मजे से झेल जाते हैं।'
केड़िया में जैविक खेती के इस मॉडल में बनाए गए इकोसेन शौचालय और बायोगैस, दोनों ही प्रयोग गांव की महिलाओं के लिये फायदेमंद साबित हो रहे हैं। जहां एक तरफ शौचालय बनने के बाद महिलाओं को खुले में शौच के लिये नहीं जाना पड़ता, वहीं दूसरी तरफ मानव-मल का इस्तेमाल खेत में खाद के रूप में भी किया जा रहा है। इसी तरह गांव में अभी तक लकड़ी और गोयठे (उपले) का चूल्हा ही था, पर अब लोगों ने बायोगैस पर खाना बनाना शुरू कर दिया है। पहले एक भी एलपीजी कनेक्शन नहीं था। बायोगैस का महिलाओं के जीवन में विशेष महत्व है।
तारो देवी के अनुसार, 'गांव के जिन घरों में बायोगैस लगाया गया है, उन घरों की महिलाओं की जिन्दगी में बड़ा बदलाव आया है। उन्हें लकड़ी और गोयठे के जहरीले घूँए से राहत मिली है। अब न तो घर काला होता है और न ही बर्तन को धोने में बहुत मेहनत की जरुरत होती है। खाना बनाना आसान हो गया है। समय की बचत भी होती है, जिसका इस्तेमाल महिलाएं दूसरे कामों के लिये करती हैं।'
इस अभियान की सफलता को देख कर, इस कार्य से जुड़े ग्रीनपीस इंडिया के कैंपेनर इश्तियाक अहमद अत्यंत संतुष्ट होते हैं। उनका कहना है, 'किसानों को हो रहे फ़ायदे की असली वजह है कि वे कुदरती खेती को अपनाकर, अपने प्रयासों से मिट्टी, पानी, जीव जंतु, मवेशी, पेड़-पौधों और खेती के बीच की कड़ियों को फिर मज़बूत होते देख रहे हैं। इसका नतीजा है कि उनके खेतों में फिर से जीवन का संचार शुरू हो गया है।'