‘पनबसना’ और ‘लाठी’ अब नहीं रही बुंदेलों की शान!
एक जमाना था जब बुंदेलखंड में हर घर के बुजुर्ग ‘पनबसना' और बांस की ‘लाठी' के शौकीन हुआ करते थे। घर आए मेहमान को पानी के साथ एक भेली गुड़ और पनबसना से महोबिया पान का बीरा चबानें के लिए देना रिवाज था। रिश्तेदारों की ड्योढ़ी पर बांस की लाठी का टिका होना ही मेहमान की हाजिरी का सबूत माना जाता था। भले ही मेहमान उनके घर में हाजिर हों, पर ड्योढ़ी में लाठी नहीं टिकी है तो महिलाएं यह मान कर कि मेहमान किसी अन्य घर में रुके होंगे, उनके लिए भोजन नहीं बनाती थीं। लेकिन, यह सब अब गुजरे जमाने की बात हो गई है।
न तो देखने के लिए पनबसना मिल रहे और न ही किसी भी घर में बांस की लाठी नजर आ रही। अब तो शराब की बोतल और जायज-नाजायज असलहों की भरमार से बुंदेलों की असली पहचान में बट्टा लग रहा है। मालिक, सयाने व दद्दा जैसे उन बुजुर्गों के नाम थे, जो सुपाड़ी के बटुआ में महोबिया पान रखने का ‘पनबसना' और मुगदर जैसी बांस की लाठी लेकर घूमना या रिश्तेदारी में आवाजाही करने जाया करते थे।
लाठी के एक सिरे को पकड़ कर जमीन से ऊपर उठा लेने वाले और उसे भांजने वाले की समाज में अलग कीमत आंकी जाया करती थी, लेकिन, अब तो सब कुछ बदल चुका है। बुरी लत के कारण बुंदेलों की युवा पीढ़ी एक ओर जहां चैपालों में ‘लालपरी' का जाम छलकाती है, तो वहीं दूसरी ओर हाथ में लाठी नहीं कमर में ‘तमंचा' लेकर चलने का चलन बढ़ गया है। कुछ लोग इसे बुरी लत का नतीजा, तो कुछ आधुनिकता की अंधीदौड़ का हिस्सा मान रहे हैं।
बांदा जनपद के कांधाखेर गांव के रहने वाले सलोना यादव इस गांव में अकेले ऐसे बुजुर्ग हैं जो अब भी अपने साथ लाठी लेकर चलना नहीं भूलते। वह बताते हैं, "इधर दो दशक में पनबसना और बांस की लाठी अदृश्य हो गई है, अब तो जानवर चराने वाले ‘बरेदी' भी तमंचा लेकर चलने लगे हैं।" इस बुजुर्ग का दावा है, "उसके गांव में 25 फीसदी लोगों के पास नाजायज असलहे मिल सकते हैं, इसके सापेक्ष पांच फीसदी भी लाठियां नहीं मिलेंगी।" इसी गांव के एक अन्य बुजुर्ग लल्ला यादव का कहना है, "ग्रामीण इलाके में ‘पाठशाला' कम ‘मधशाला' ज्यादा हैं। गांव में शाम ढलते ही शराब के नशे में टुन्न युवा मंड़राने लगते हैं।"
अपर पुलिस अधीक्षक बांदा स्वामी प्रसाद ने बताया, "बांदा जनपद में लगभग 13 हजार लाइसेंसी असलहा हैं, सैकड़ों की तादाद में असलहा मांगने वालों के आवेदन विचाराधीन हैं।" बांदा के नरैनी कस्बे में रह रहे रिटायर्ड पुलिस उपमहानिरीक्षक (डीआईजी) आर.डी. त्रिपाठी कहते हैं, "आधुनिकता की अंधीदौड़ में फंस कर युवा पीढ़ी बुंदेलखंड की सांस्कृतिक विरासत को रौंद रही है, भविष्य में इसके भयावह परिणाम होंगे।"
वह यह भी कहते हैं, "गांवदारी को बढ़ावा और ऊपरी कमाई के चक्कर में मुकामी पुलिस कर्मी ‘दारू और असलहा' के चलन को बढ़ावा देने में पीछे नहीं हैं।" सामाजिक कार्यकर्ता सुरेश रैकवार बताते हैं, "पान चबाने के बजाय सरेआम बिक रहे तम्बाकू के गुटखा जहां गंभीर बीमारियों को न्यौता देते हैं, वहीं लाठी की जगह जायज-नाजायज असलहों के चलन से अपराध बढ़ रहे हैं। युवा पीढ़ी के लिए दोनों चीजे बुरी हैं।"