भोपाल गैस त्रासदी : अस्पतालों में पीड़ितों से खिलवाड़
हाल यह है कि 25 साल बाद भी पूरी तरह स्वस्थ होने के लिए पीड़ित लालायित हैं लेकिन अस्पतालों से पीड़ितों को खांसी बुखार से ज्यादा इलाज नहीं मिल पा रहा है। भोपाल के लिए दो-तीन दिसम्बर, 1984 की रात काल बनकर आई थी, जब यूनियन कार्बाइड के कारखाने से रिसी मिथाइल आइसो सायनेट (मिक) गैस ने हजारों लोगों की जिंदगी को लील लिया था और लाखों को तिल-तिलकर मरने के लिए छोड़ दिया था। 25 वर्ष बाद भी गैस का असर लोगों की रगों में है। यही करण है कि मौत और बीमारियों का दौर अब भी जारी है।
इस हादसे का शिकार बने 10 लाख 29,517 लोगों ने दावा किया था, मगर उनमें 5,74,370 को ही कल्याण आयोग ने मान्य किया है। इन पीड़ितों को मुआवजा बांटा गया। लाखों बीमार अब भी जिंदगी और मौत से जूझ रहे हैं।
हादसे के बाद लोगों को पहले जरूरत इलाज की थी और दूसरी आर्थिक मदद, इसके लिए प्रदेश सरकार ने पहल की। गैस पीड़ितों के लिए राहत और पुनर्वास की कई योजनाए चलाई गईं। इसके बाद 29 अगस्त, 1985 को गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास विभाग गठन किया गया। इतना ही नहीं, 10 साल बाद संचालनालय गैस राहत एवं पुनर्वास का गठन किया गया।
पिछले 25 वषरें से राहत एवं पुनर्वास विभाग ने राहत एवं पुनर्वास के लिए योजनाओं को प्रमुख तौर पर चार वर्गो चिकित्सकीय पुनर्वास, आर्थिक पुनर्वास, सामाजिक पुनर्वास और पर्यावरणीय पुनर्वास में बांटा। सेहत को दुरूस्त करने के लिए छह बडे अस्पताल, नौ 'डे केयर यूनिट' स्थापित की गई और देशी पद्धति के नौ औषधालय खोले गए। इन सुविधाओं पर अब तक 383 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं। इन अस्पतालों में से अधिकांश की भव्य इमारतें और उपकरण तो हैं, मगर दक्ष चिकित्सक एवं पैरा मेडिकल स्टाफ अब भी कम है।
मिक गैस भोपाल के लोगों पर किस तरह का असर पड़ा है और उन्हें किस तरह के इलाज की जरूरत है, इसके लिए आईसीएमआर ने वर्ष 1994 तक 23 शोध किए, मगर इन शोध रिपोर्ट में से एक को भी सार्वजनिक नहीं किया है। लिहाजा, आज तक मरीजों की बीमारी का न तो खुलासा हो पाता है और न ही शोध आधारित इलाज हो पा रहा है। यही कारण है कि साल दर साल पीड़ितों की संख्या कम होने का नाम नहीं ले रही है।
भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के अब्दुल जब्बार कहते हैं कि अस्पताल सिर्फ दिखावटी है। यहां न तो चिकित्सा के पर्याप्त इंतजाम है और न ही विशेषज्ञ। गैस पीड़ित सांस, हृदय, गुर्दा और लिवर के रोग से पीड़ित हैं, मगर उनके इलाज के लिए विशेषज्ञ ही नहीं है।
वह कहते हैं कि इन अस्पतालों में शोध के आधार पर नहीं, बल्कि लक्षण के आधार पर इलाज होता है। मरीजों का सिर्फ बुखार-खांसी का ही इलाज हो पा रहा है। इलाज करा रहे मरीज का हर बार नया पर्चा बनाया जाता है। किसी भी मरीज का रिकार्ड नहीं होता। सर्वोच्च न्यायालय ने एक समिति बनाई थी, जिसने मरीजों का रिकार्ड बनाने की कई बार सिफारिश की, मगर रिकार्ड अब तक नहीं बन पाया है।
सरकारी रिकार्ड इस बात की गवाही देते हैं कि इन अस्पतालों में हर रोज साढ़े तीन हजार से ज्यादा मरीज उपचार के लिए आते हैं। साल भर में 10 से 15 लाख से अधिक बाह्य रोगियों का इलाज इन केंद्रों में होता है। वहीं, अब तक सिर्फ ढाई लाख मरीजों का ही पैथोलॉजी टेस्ट कराया गया है।
मरीजों की संख्या को लेकर जब्बार का कहना है कि ये आंकड़े सरकारी अस्पतालों के हैं। हकीकत में हर रोज निजी व दीगर अस्पतालों में इलाज कराने वालों की संख्या 6000 आसपास है। यदि उपचार ठीक तरह से हो रहा होता तो अस्पतालों में मरीजों की संख्या घटना चाहिए थी, मगर 25 साल से साल दर साल संख्या बढ़ती ही जा रही है।
जहरीली गैस कांड संघर्ष मोर्चा के संयोजक आलोक प्रताप सिंह कहते हैं कि गैस पीड़ित इलाकों में अस्पताल तो प्र्याप्त है, मगर चिकित्सकों और पैरा मेडिकल स्टाफ की कमी बनी हुई है। इमारतें और उपकरण की खरीदी पर वह कहते हैं कि खरीद में उस हर व्यक्ति को लाभ होता है, जो इस प्रक्रिया में शमिल होता है, वहीं लाभ उसे नहीं मिलता जिसके लिए यह व्यवस्था की जाती है।
भोपाल गैस पीड़ित संघर्ष सहयोग समिति की संयोजक साधना कार्णिक प्रधान कहती हैं कि गैस पीड़ितों का अब तक सही इलाज किया ही नहीं गया है। ऐसा इसलिए, क्योंकि सही इलाज से बीमारी की पुष्टि होने के साथ यूकां के खिलाफ दस्तावेजी प्रमाण बन जाते और यूकां को दोषी ठहराया जा सकता था।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
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