महिलाएं: राजनीति की मुश्किल डगर
सत्ता
में
शामिल
एक
कठपुतली
लखनऊ
से
समाजवादी
पार्टी
की
प्रत्याषी
नफीसा
अली
कहती
हैं
कि
राजनीति
में
महिलाओं
को
बहुत
कम
जगह
मिल
पा
रही
है,
जबकि
महिलाओं
को
राजनीति
में
आरक्षण
देने
की
बात
सभी
पार्टियां
सालों-साल
से
कर
रही
हैं।
पंचायती
राज
के
अंतगर्त
महिलाओं
को
कुछ
राज्यों
में
आरक्षण
मिला
भी
है।
आरक्षण
के
कारण
महिलाएँ
संरपच
और
गाँव
प्रमुख
तो
जरुर
बन
गई
हैं
,
किन्तु
वास्तव
में
सारे
कार्य
और
निणर्य
उनके
पतियों
या
उनके
परिवार
के
पुरुष
सदस्यों
के
द्वारा
लिया
जाता
है।
महिलाएँ
इस
तरह
बुनियादी
स्तर
की
सत्ता
में
शामिल
होकर
भी
कठपुतली
बनी
हुई
हैं।
यही वजह है कि आज भी महिलाओं का जनाधार नहीं बढ़ रहा है। वे घर के अलावा बाहर जरुरत के हिसाब से समय नहीं दे पाती हैं। जनता से उनका परिसंवाद नहीं हो पाता है। अधिकांश मामलों में उन्हें घर से सहयोग भी नहीं मिलता है। संभवत: इन्हीं कारणों से आज भी राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय राजनीति में बहुत कम महिलाएं शामिल होती हैं।
राजनीति
की
मुख्यधारा
और
स्त्रियां
देश
की
महिला
राजनीतिज्ञों
में
से
मायावती,
उमा
भारती,
सुश्री
जयललिता,
सुषमा
स्वराज,
सुमित्रा
महाजन,
वसुधरा
राजे
सिंधिया,
मीरा
कुमार,
रेणुका
चौधरी
इत्यादि
का
नाम
प्रमुख
है।
इनमें
ममता
बनर्जी,
जयललिता,
उमा
भारती,
सुषमा
स्वराज
और
मायावती
अक्सर
अपने
बयानों
के
कारण
चर्चा
में
रहती
हैं।
पर
इन
जयललिता,
मायावती
और
ममता
बनर्जी
का
बेहतर
जनाधार
भी
है।
मायावती
अपने
दम
पर
उत्तरप्रदेश
में
सत्ता
में
काबिज
होने
में
सफल
रही
हैं।
ममता
बनर्जी
का
भी
बंगाल
की
राजनीति
में
एक
मुकाम
है।
वहीं
जयललिता
अपने
राज्य
की
बेहद
ही
कद्वावर
नेत्री
हैं।
अगर ममता बनर्जी और मायावती को छोड़ दें तो आज की अन्य सभी महिला नेताओं का जनाधार नहीं के बराबर है। वे पार्टी से हैं, न की पार्टी उनसे है। उमा भारती ने अपने व्यापक जनाधार होने के भ्रम में ही भाजपा छोड़ने की भूल की थी। उनकी पार्टी का क्या हाल हुआ? इस तथ्य से हम अच्छी तरह से वाकिफ हैं। ताजा ख़बर के अनुसार मई महीने में उमा भारती फिर से भाजपा में शामिल हो रही हैं। उनकी पार्टी का विलय भी भाजपा में हो जायेगा।
स्त्रियां,
जनाधार
और
आधार
कभी
इंदिरा
गांधी
का
जर्बदस्त
जनाधार
था।
इसका
बुनियादी
कारण
था
इंदिरा
गांधी
द्वारा
जमीनी
स्तर
पर
कार्य
करना,
उनका
जनता
के
बीच
जाना,
उनसे
संवाद
करना,
उनकी
जरुरतों
को
समझना,
समस्याओं
के
निराकरण
के
लिए
कदम
उठाना,
विकास
के
लिए
प्रयास
करना
इत्यादि।
इससे
स्पष्ट
होता
है
कि
जब
तक
महिलाओं
की
जनता
के
बीच
पैठ
नहीं
होगी,
तब
तक
सही
मायनों
में
महिलाएँ
राजनीति
में
अपनी
उपस्थिति
दर्ज
नहीं
करवा
सकती
हैं।
वहीं राबड़ी देवी, मीरा कुमार, जयाप्रदा , हेमामालिनी जैसी महिला नेता के होने या नहीं होने से कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि इन्हें राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। इन महिला नेताओं को पर्दे के पीछे से कोई और संचालित करता है।
मध्यप्रदेश
का
हाल
मध्यप्रदेश
में
भी
महिलाओं
की
भागीदारी
इस
लोकसभा
के
चुनाव
में
भी
लगभग
नगण्य
सी
ही
है।
वैसे
विदिषा
संसदीय
क्षेत्र
से
भाजपा
की
स्टार
नेत्री
सुषमा
स्वराज
के
चुनाव
में
खड़े
होने
से
मध्यप्रदेष
की
स्थिति
दूसरे
राज्यों
से
महिला
नेताओं
की
राजनीति
में
हिस्सा
लेने
के
संदर्भ
में
जरुर
बेहतर
हो
गई
है,
पर
मोटे
तौर
पर
आज
भी
प्रदेष
में
कोई
भी
महिला
नेत्री
अपने
दमखम
पर
आगे
बढ़ने
की
स्थिति
में
नहीं
है।
सुषमा स्वराज भी बाहर की उम्मीदवार हैं। मध्यप्रदेश के महिला नेताओं में से प्रमुख रुप से तीन का ही नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। इनके नाम क्रमष: हैं- उमा भारती, सुमित्रा महाजन और विधान सभा में प्रतिपक्ष की आदिवासी नेत्री जमुना देवी। इस लोकसभा चुनाव में भी प्रदेश के 29 लोकसभा सीटों में से 17 सीटों से ही महिला प्रत्याशी चुनाव लड़ रही हैं। इनमें से अधिकांश प्रतिभागी या तो कांग्रेस से संबंध रखती हैं या फिर भाजपा से।
ऐसा नहीं है कि आज महिलाएँ पुरुषों से किसी भी मायने में कम हैं। हर क्षेत्र में वे पुरुषों से कंधा से कंधा मिला कर चल रही हैं। राजनीति में भी बहुत सी महिलाएँ आज की तारीख में सक्रिय हैं। कुछ अर्सा पहले मैंने कहीं एक कविता पढ़ी थी, जो राजनीति में महिलाओं की स्थिति पर सटीक टिप्पणी करती चलती है-
अविश्वास
को
सहेज
कर
प्रतिस्पर्धा
करती
है
लड़कों
से
एक
लड़की
फिर
भी
अपनी
इस
यात्रा
में
सहेजती
है
वह
निराशा
के
खिलाफ
आशा
अंधेरों
के
खिलाफ
सहेजती
है
उजाला
और
सागर
में
सहेजती
है
उपेक्षाओं
एवं
उलाहनों
के
खिलाफ
प्रेम
की
छोटी
सी
डगमगाती
नाव
सब
कुछ
सहेजती
है
वह
मगर
सब
कुछ
सहेजते
हुए
वह
सिर्फ
अपने
को
ही
सहेज
नहीं
पाती।