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निगेटिव वोटिंग यानी जनता का जवाब

By सतीश कूमार सिंह
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Elections
15 वें लोकसभा में नकारात्मक मतदान और कम वोटिंग के कारण नेताओं की हालत पतली है। उनके सारे समीकरण बिगड़ते नजर आ रहे हैं। मध्यप्रदेश में प्रथम और द्वितीय चरण का मतदान हो चुका है। पर वोटिंग का प्रतिशत दोनों चरणों को मिला करके बमुश्किल 50 फीसदी तक के आस-पास ही पहुंच सका है।

इस लोकसभा चुनाव में लगता है मतदाताओं का गुस्सा एकदम से फूट पड़ा है। लगभग सभी मतदाता मतदान से परहेज कर रहे हैं। लुभावने वादे और प्रलोभन मतदाताओं पर प्रभाव डालने में असफल रहे हैं। हालाँकि राजनीतिक दलों को बदलते परिवेश ने चिंता में जरुर डाल दिया है। फिर भी सुधरने के पक्ष में वे नहीं हैं।

घर से निकले पर वोट नहीं डाला

आज उनको दो चिंता खाए जा रही है। पहली चिंता तो उनकी नकारात्मक वोटिंग की है और दूसरी कम मतदान की। भारत का दिल कहे जाने वाले मध्यप्रदेश में प्रथम चरण का मतदान नकारात्मक वोटिंग के नाम रहा। मतदाता पोलिंग बूथ तक तो जरुर गये, लेकिन उन्होंने नकारात्मक मतदान करना ही उचित समझा।

नकारात्मक वोटिंग का निहितार्थ नेताओं के लिए कुनैन की गोली के समान है। वे इस मतदान को कभी भी मीठी गोली नहीं समझ पायेंगे। क्योंकि यह उनकी योग्यता और विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगाता है। अगर इसको परिभाषित किया जाए तो इसका आशय यह है कि जो भी प्रत्याशी चुनाव के मैदान में हैं, वे मतदाताओं के मतानुसार सही और योग्य उम्मीदवार नहीं हैं। मध्यप्रदेश में प्रथम चरण के मतदान में नकारात्मक मतदान करने वाले कुल वोटर 1413 थे।

मध्यप्रदेश में गहरा झटका

इस मामले में खजुराहो संसदीय क्षेत्र के मतदाता सबसे आगे रहे। इस संसदीय क्षेत्र में नकारात्मक मतदान डालने वाले 712 वोटर थे। इसी क्रम में भोपाल संसदीय क्षेत्र दूसरे नम्बर पर था। इस संसदीय क्षेत्र में 418 मतदाता ऐसे थे जिन्होंने नकारात्मक मतदान किया था। अन्य संसदीय क्षेत्रों में जहाँ नकारात्मक मतदान पड़ा उनमें छिंदवाड़ा, बैतुल, बालाघाट, शहडोल, मंडला, जबलपुर एवं सतना का नाम प्रमुख है। कुल मिलाकर पहले चरण में मध्यप्रदेश में कुल 13 सीटों के लिए मतदान हुआ था और कमोवेश सभी 13 संसदीय क्षेत्रों में नकारात्मक वोटिंग हुई थी। यह नेताओं और राजनीतिक पार्टियों के लिए गंभीर झटका और चिंता का विषय है। नकारात्मक वोटिंग मध्यप्रदेश के ग्रामीण, खास करके आदिवासी या जनजातीय बहुल इलाकों में ज्यादा हुए।

ऐसा नहीं है कि नकारात्मक वोटिंग का प्रावधान एक नई परिकल्पना है। वस्तुत: इसका प्रावधान सर्वप्रथम सन्‌ 1961 के लोकसभा चुनाव में किया गया था। तब से बदस्तुर यह प्रावधान हमारे लोकतंत्र में उपस्थित है। किन्तु किसी ने कभी उल्लेखनीय रुप से इसका प्रयोग नहीं किया । इस प्रावधान का मूल उद्वेश्य फर्जी मतदान को रोकना था। पहले होता यह था कि अगर कोई मतदाता यदि मतदान नहीं करना चाहता था तो उसके मत का प्रयोग फर्जी तरीके से दूसरे उम्मीदवार के पक्ष में कर दिया जाता था। इस विकल्प के आने से मतदाता के पास एक और विकल्प हो गया। अब वह सही उम्मीदवार के मैदान में नहीं रहने की दशा में वह नकारात्मक मतदान करके अपना विरोध जता सकता है।

शायद मीडिया के प्रभाव और आम मतदाताओं के बीच बढ़ती जागरुकता के कारण आज छोटी-छोटी जगहों के मतदाता भी इस विकल्प को इस्तेमाल करने में हिचक नहीं रहे हैं। वस्तुत: नकारात्मक वोटिंग एक सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन नेताओं के स्वास्थ के लिए यह कत्तई सामान्य नहीं है। क्योंकि चुनाव कानून की धारा 49 (0) के अंतगर्त डाले गये नकारात्मक वोट यह सोचने पर जरुर मजबूर करते हैं कि क्यों और किस परिस्थिति में नकारात्मक वोट डाले गये।

असली वजह नेताओं की खराब छवि

नकारात्मक वोटिंग करने का अर्थ वास्तव में बहुत ही गंभीर है। इसका साफ अर्थ यह है कि मतदाता प्रत्याशी के कार्यकलापों से खुश नहीं है। उसके वादे उसे खोखले और आधारहीन लगते हैं। दूसरे शब्द में मतदाता यह मान चुका कि सभी उम्मीदवार जो चुनावी मैदान में खड़े हैं,वे सिर्फ झूठ और झूठ के सिवाय कुछ नहीं बोलते हैं।

इस तरह की स्थिति क्यों उत्पन्न हो रही है? यह नेताओं को जरुर सोचना चाहिए। आज की तारीख में कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है, जिसके उम्मीदवार दागी न हों। सच तो यह है कि बिना बाहुबली के राजनेता अपनी नैया चुनाव की वैतरणी में पार ही नहीं लगा सकते। आज कोई भी सांसद अपने सांसद कोष का उपयोग आम जन के कल्याण के लिए नहीं करता है।

इस संदर्भ में विदिशा संसदीय क्षेत्र का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। कभी विदिशा संसदीय क्षेत्र अटल बिहारी बाजपेयी का चुनाव क्षेत्र था। बावजूद इसके विदिशा में विकास ने कितनी लंबी छलांग लगाया है? यह किसी से छुपा नहीं है। 15वें लोकसभा चुनाव में भाजपा से सुषमा स्वराज उम्मीदवार हैं। देखना है कि श्रस्वराज विदिशा की जनता के लिए क्या करती हैं?

करोड़पति और उद्योगपति उम्मीदवार

15वें लोकसभा चुनाव में 850 से ज्यादा उम्मीदवार ऐसे हैं जो करोड़पति हैं। इनके पास अकूत संपत्ति है। बहुत सारे उम्मीदवार उघोगपति हैं। वे जनता की सेवा कितना कर पायेंगे? यह भी देखने की चीज होगी। सच कहा जाये तो राजे-महाराजे तो चले गये, लेकिन इनकी जगह आज नेताओं ने ले ली। न तो पहले राजे-महाराजों को जनता की फिक्र थी और न आज नेताओं को है। कभी दलितों की पार्टी मानी जाने वाली बहुजन समाज पार्टी, आज करोड़पति उम्मीदवारों को टिकट देने के संबंध में तीसरे नम्बर की पार्टी है।

जो भी हो आज नकारात्मक वोटिंग और नेताओं के ऊपर जूता फेंकने के विकल्प के रुप में जनता के हाथ में एक ऐसा हथियार आ गया है जो देर -सबेर कारगार तो जरुर सिद्व होगा। बेशर्मी अब ज्यादा देर काम नहीं कर सकती। सच का सामना नेताओं को करना ही होगा।

तस्वीर साफ है। अब आप जनता को और ज्यादा बेवकूफ नहीं बना सकते। अगर अक्ल है तो संकेत समझ जाओ। नहीं तो चिंगारी कब जंगल की आग बन जायेगी, पता भी नहीं चलेगा।

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