मासूम बबली का क्या कसूर था?
पश्चिम बंगाल के आंदल बाजार की दस साल की बबली का कसूर था कि वह स्कूल गई थी। इससे बड़ा कसूर यह था कि उसे जो होमवर्क मिला था वह उसने किया। लेकिन सबसे बड़ा कसूर यह था कि उसमें उसने गलती की थी। यह अक्षम्य अपराध है। उसकी शिक्षिका ने ब्लैकबोर्ड पर गलती मिटाने वाला डस्टर इस तरह फेंककर मारा कि गलती के साथ-साथ बबली भी मिट गई। डस्टर बबली के सिर में लगा। चोट गहरी थी। बबली ने चार-पांच उलटियां की। जैसा कि हम सबका स्वभाव है,हर बात को अपने स्तर पर निपटाने की कोशिश करते हैं। न बबली के पालकों को समय रहते सूचित किया गया न उसे समय पर अस्पताल ले जाया गया। जब तक उसे अस्पताल नसीब हुआ तब तक वह अपना सफर तय कर चुकी थी।
कथाकार
ज्ञानरंजन
का
स्कूल
इसे
मैं
दुर्योग
कहूं
या
संयोग
कि
अखबार
में
यह
खबर
और
मशहूर
कथाकार
ज्ञानरंजन
का
एक
संस्मरण
मैंने
एक
ही
दिन
पढ़ा।
उन्होंने
अपने
बचपन
के
स्कूल
का
जिक्र
किया
है।
वे
अब
लगभग
अस्सी
के
आसपास
के
हैं।
जब
स्कूल
में
रहे
होंगे
वह
1940
का
समय
रहा
होगा।
ज्ञानरंजन
ने
अपने
स्कूल
के
मास्टर
को
जल्लाद
कहा
है,
जो
हाथ
में
छड़ी
लिए
बच्चों
का
इंतजार
करता
ही
रहता
है।
जब
उन्होंने
संस्मरण
लिखा
वह
1980
के
आसपास
का
समय
था।
तब
वे
कहते
हैं
कि
हमें
यह
नहीं
भूलना
चाहिए
कि
पुलिस
थानों
के
बाद
स्कूल
ही
वह
जगह
है
जहां
क्रूर
तरीके
से
पिटाई
की
जाती
है।
बात सही है। मैं अपना स्कूल का समय याद करता हूं जो कि 1965 से 1975 तक के बीच फैला है, तो रोंगटे खड़े कर देने वाली यादों से रूबरू होता हूं। खडि़या मिट्टी की मार सिर पर कई बार खाई। उंगलियों के बीच फंसी पेंसिल का दबाव अब भी महसूस होता है। कांख की नाजुक जगह में चिकोटी अब भी काटती है। गालों पर पड़े चांटे गाल सहलाते हुए याद आते हैं। जब अपनी हथेली पर किस्मत की रेखाओं को देखता हूं तो लगता है कुछ रेखाओं हथेली पर पड़े रूल की मार में कहीं दब गई हैं।
बबली शायद नहीं जानती थी...
जब कभी किसी काम से नीचे झुकता हूं तो स्कूल में मुर्गा बनने और लाल होते कान याद आते हैं। आज भी पीठ पर कोई हल्के से धौल मार देता है तो मुक्कों की याद से रूह कांप जाती है। बेचारी बबली शायद नहीं जानती थी कि ये सब प्रचलित या कि लोकप्रिय तरीके हैं। अगर कहूं कि स्कूल में बच्चों की पिटाई पुरातन काल से चल आ रही है तो शायद गलत नहीं होगा। हां तथाकथित रूप से सभ्रांत कहे जाने वाले स्कूलों में इन सब पर निषेध होगा। पर हमारा 70 प्रतिशत बचपन तो अब भी सरकारी स्कूलों में ही है।
2005 में एनसीईआरटी ने राष्ट्रीय पाठ्यचर्चा की रूपरेखा प्रस्तुत की थी। इस पाठ्यचर्या को लागू करने में शिक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका को भी रेखांकित किया गया था। इस भूमिका का पहला ही बिन्दु कहता है कि, ' शिक्षक ऐसा हो जो विद्यार्थियों की देखभाल करे और बच्चों का साथ उसे अच्छा लगे।' लगता है आंदल बाजार की उस शिक्षिका तक राष्ट्रीय पाठ्यचर्या का यह दस्तावेज नहीं पहुंचा है। हो सकता है पहुंचा भी हो तो स्कूल की किसी अलमारी में बंद हो।
सवाल यह है कि हमारे स्कूल कब तक कसाईखाने बने रहेंगे? इस टिप्प्णी को पढ़ने वाले लोगों में कई इस शिक्षकीय पेशे से संबंध रखते होंगे,कई शिक्षा प्रशासन से जुड़े होंगे, तो कई वे होंगे जो रोज ऐसे वाकयों से दो-चार होते होंगे। क्या आप सब बबली की बलि से थोड़े भी द्रवित हुए हैं?
[लेखक जानेमाने शिक्षाविद् हैं और वर्तमान में अजीम प्रेमजी फाउंडेशन से जुड़े हैं।]