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बचपन, शिक्षा और खलनायक

By राजेश उत्‍साही
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Girls in school
मेरी दादी अब नहीं हैं। होतीं तो सौ साल की होतीं। वे स्‍कूल गईं, केवल कुछ दिन ही। जब हम उनसे पूछते कि उन्‍होंने स्‍कूल क्‍यों छोड़ दिया। तो वे ठेठ बुन्‍देली अंदाज में अपने मास्‍टर को कोसतीं। फिर अपनी उंगली दिखाकर कहतीं, 'ठठरी बंधे ने जामें(इसमें) इतने जोर से छड़ी मारी कि अब तक पिरात (दुखती) है..."

मैं 1975 में ग्‍यारहवीं मैं था। उन दिनों हर मां-बाप की इच्‍छा थी कि उनकी संतान या तो इंजीनियर बने या फिर डॉक्‍टर। किसी और प्रोफेशन के बारे में न तो सुनते थे, न मां-बाप जानते थे। मैंने बायलॉजी लिया था। मतलब कि डॉक्‍टर बनने की इच्‍छा रखता था। वहां एक पीटी टीचर थे। वे रोज प्रार्थना करवाते । किसी न किसी बहाने वे हमारी कक्षा को यह जरूर कहते कि इनके बाप तो कंपाउडर भी नहीं बने, ये डॉक्‍टर बनने चले हैं। उनके ये शब्‍द पिघले सीसे के तरह कान में उतरते थे।

छोटी बहन 35 साल की है। छठवीं के बाद उसने स्‍कूल से मुंह मोड़ लिया। उसकी शिक्षिका अंग्रेजी में कमजोर होने के लिए हमेशा ताने कसती थी। बहुत समझाने के बाद भी उसने स्‍कूल जाना स्‍वीकार नहीं किया।

बड़ा बेटा 23 साल का है। हमने उसे भोपाल के एक अंग्रेजी माध्‍यम स्‍कूल में दाखिल करवाया था। जब वह दूसरी में था,तो उसकी शिक्षिका भी अंग्रेजी पर ताने कसती थी। ताने जो बच्‍चे की अस्मिता को चोट पहुंचाते थे। वह कहती क्‍यों अपने मां-बाप के पैसे बरबाद कर रहे हो। जाओ किसी हिन्‍दी स्‍कूल में जाकर पढ़ो।

ये ताने बच्‍चे को तो चोट पहुंचाते ही थे, उसके नन्‍हे मुंह से सुनकर हम भी पीड़ा से भर उठते थे। मेरी और पत्‍नी की अंग्रेजी भी इतनी अच्‍छी नहीं थी कि हम उसे घर में मदद कर पाते। अंतत: हमने उसे वहां से निकालकर हिन्‍दी माध्‍यम स्‍कूल में डाला। नतीजा यह कि उसने बारहवीं तक चार अलग-अलग स्‍कूल बदले।

छोटा बेटा बड़े से पांच साल छोटा है। बड़े के साथ छोटे को भी नए स्‍कूल में दाखिल करवाया। बड़ा तीसरी में था। छोटा नर्सरी में। पन्‍द्रह दिन सब ठीक चला। एक दिन छोटे ने जिद पकड़ ली कि वह बड़े के साथ बैठेगा। शिक्षिका ने नाराज होकर उसके कान कुछ इस तरह खींचे कि उसने स्‍कूल न जाने का ऐलान कर दिया। फिर वह अगले साल ही स्‍कूल गया।

मैं सोचता हूं दादी स्‍कूल गईं होतीं तो शायद उन्‍होंने हफ्ता बाजार में मजदूरी नहीं की होती। मैं या मेरी कक्षा से कोई डॉक्‍टर नहीं बना, ये सच है। पर पीटी टीचर के शब्‍द आज भी आत्‍मा पर चोट पहुंचाते हैं। वे किसी गाली से कम नहीं लगते हैं। छोटी बहन अगर आगे पढ़ पाती तो उसे आज अपनी शिक्षा के बारे में बताने में संकोच नहीं होता। बड़े बेटे ने अगर चार स्‍कूल नहीं बदले होते तो उसकी दुनिया शायद कुछ अलग होती। छोटा अगर कान खींचने से आतंकित नहीं होता,तो उसका एक साल बरबाद होने से बच जाता।

ये सब कहानियां अलग- अलग समय की हैं। इनके नायक अलग-अलग हैं। लेकिन इन सबमें खलनायक एक ही है- वह है शिक्षक या शिक्षिका की असंवेदनशीलता। यह असंवेदनशीलता किस हद तक जिंदगी को प्रभावित करती है या कर सकती है यह इन कहानियों में और आगे जाकर देखा जा सकता है। बहुत संभव है आप के परिवार में या आपके आसपास भी आपको ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे। उनके प्रभाव भी आप देख सकते हैं।

क्‍या इस खलनायक को यानी असंवदेनशीलता को नष्‍ट किया जा सकता है। शायद हां। जो शिक्ष्‍ाक या शिक्षिका इसे पढ़ रहे हों तो वे इस बात पर जरूर गौर करें। इस खलनायक को नायक बनने से रोकना होगा।

[लेखक शिक्षा के समकालीन मुद्दों से सरोकार रखते हैं। वे शिक्षा में काम कर रही संस्थाओं से जुड़े हैं।]

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