सृजन संकट की बोधकथा
सेमीनार का अंतिम दिन था। वक्ता वेशभूषा से किसी गांव के खांटी पटेल या प्रमुख लग रहे थे। सफेद कुर्ता और सफेद धोती उन्होंने धारण की थी। गले में गमछा और चेहरे पर सफेद मूंछें थीं।
वे भारतीय मूर्तिशिल्प और देवालय की बात कर रहे थे। बता रहे थे कि जितने भी प्राचीन मंदिर बने हैं,उन सबके बनाने के पीछे एक तार्किक आधार और योजना है। किस देवता या देवी की मूर्ति कितनी बड़ी बनेगी इसका एक सूत्र है। मंदिर का मुंह किधर होगा यह भी मन से तय नहीं होता। मूर्ति के लिए पत्थर का चुनाव भी बहुत सोचविचार कर किया जाता है। लगभग नौ महीने तक उस पत्थर का विशेष उपचार किया जाता है। मंदिर के लिए जगह का चुनाव भी बहुत विधि विधान के साथ किया जाता है। इन सब बातों को सुनना अच्छा लग रहा था, पर कहीं-कहीं ऊब भी हो रही थी।
वे रवीन्द्र शर्मा थे। आंध्रप्रदेश के आदिलाबाद में एक छोटा-सा कला आश्रम चलाते हैं। जहां लोककलाओं और लोकविज्ञान के संरक्षण का काम किया जाता है,ऐसा उनका कहना था। वे कहते हैं प्रलय आ रही है - पश्चिमी ज्ञान विज्ञान की। हमारे देश के लोकविज्ञान ,लोककला,सभ्यता ,संस्कृति, परम्परा सभी के सामने टिके रहने की चुनौती खड़ी हो गई है। लोक ज्ञान और लोक परम्परा के जो बीज यहां-वहां बिखरे पडे़ हैं वे उन्हें एकत्र करने का काम कर रहे हैं। उनकी बातों में एक हद तक सच्चाई थी।
पर जैसा कि होता है आपको ऐसे लोग अक्सर मिल जाते हैं। कस्बाई भाषा में कहूं तो वे बस हांकते रहते हैं। काम कुछ करते नहीं। उनके बारे में भी मैंने कुछ ऐसी ही धारणा बना ली। भोजन के बाद उनका दो घंटे का एक और सत्र था। हम किसी और काम से गए थे। हम जिनसे मिलना था वे इस सेमीनार के आयोजक ही थे। सो जब तक यह सेमीनार खत्म नहीं होता वे हमसे नहीं मिल सकते थे। मन मारकर फिर से उनके सत्र में बैठ गए।
अब वे कला शिक्षा पर बोल रहे थे। उनके श्रोता थे सिद्ध द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों के शिक्षक। उन्होंने बताया कि वे किस तरह कला के क्षेत्र में आए। अपने बचपन से लेकर युवावस्था की विभिन्न घटनाओं को उन्होंने विस्तार से सुनाया। उनकी एक घटना के निचोड़ ने मुझे भी अपनी जिन्दगी के नजरिए को बदलने पर मजबूर कर दिया। निचोड़ क्या था आप भी पढें, हो सकता है आप भी अपना नजरिया बदल लें।
रवीन्द्र जी ने बताया जब वे कला के विद्यार्थी थे तो उन्हें इस बात का बड़ा गुमान था कि उन्होंने मूर्तिशिल्प में बहुत सारा काम किया है। लेकिन दुख यह होता था कि कोई उस पर ध्यान नहीं देता। एक दिन उन्होंने एक कठोर निर्णय लिया। उन्होंने अपनी कला कक्षा में जाना बंद कर दिया।
वे कालेज के कैम्पस में एक पेड़ के नीचे बैठने लगे। वे एक कैनवास पर दूर के एक पेड़ को देखकर चित्र बनाते रहते। और कुछ नहीं करते। यह क्रम लगभग छह माह तक चला। हां छह माह तक। उन्होंने देखा कि पेड़ पर पत्ते आए,फूल खिले,फल लगे। फिर धीरे-धीरे सब झड़ गए। पेड़ नंगा हो गया। फिर पेड़ में नई पत्तियां आईं,हरियाली छाई। फूल खिले,फल लगे।
रवीन्द्र जी को जैसे ज्ञान की प्राप्ति हो गई। वे कहते हैं मैंने उस पेड़ के अवलोकन से सीखा कि जब तक हम पुराना छोड़ेंगे नहीं, नया सृजित नहीं करेंगे। जो हमने रच दिया उसे कौन हमसे छीन सकता है। हमें उसे छोड़कर आगे की तरफ देखना चाहिए। तभी हम नया सृजन कर सकते हैं।
सचमुच रवीन्द्र जी ने बहुत बड़ी बात कह दी थी। हम सब अपने पुराने किए को ही ढोते रहते हैं। कई बार यह ढोना इतना भारी हो जाता है कि हमारे कंधे और कमर ही झुक जाती है और हम आगे देख ही नहीं पाते।
[राजेश उत्साही शिक्षा के समकालीन मुद्दों से सरोकार रखते हैं। वे शिक्षा में काम कर रही संस्थाओं से जुड़े हैं।]