पितृ-पक्ष में क्यों किये जाते हैंं पिण्डदान?
हिंदू मान्यताओं के अनुसार, पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और उत्तम मार्ग है। किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है। प्रतीकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड कहा जाता है। पिंडदान के समय मृतक के निमित्त अर्पित किए जाने वाले पदार्थ, जिसमें जौ या चावल के आंटे को गूंथकर बनाया गया गोलाकृति पिंड कहलाता है।
पितृ-पक्ष में क्यों जरूरी है श्राद्ध-कर्म, क्या कहते हैं शास्त्र?
पिंडदान के लिए क्यों प्रासंगिक है बोधगया
वैसे तो देश के कई स्थानों में पिंडदान किया जाता है, परंतु बिहार के फल्गु नदी तट पर बसे गया में पिंडदान का विशेष महात्म्य है। ऐसा माना जाता है कि भगवान राम और देवी सीता ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए गया में ही पिंडदान किया था।
पितृ पक्ष में पूर्वजों के श्राप से मिलेगी मुक्ति..
महाभारत में लिखा है कि फल्गु तीर्थ में स्नान करके जो मनुष्य श्राद्धपक्ष में भगवान गदाधर (भगवान विष्णु) के दर्शन करता है, वह पितरों के ऋण से विमुक्त हो जाता है. कहा गया है कि फल्गु श्राद्ध में पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोजन-ये तीन मुख्य कार्य होते हैं. पितृपक्ष में कर्मकांड का विधि व विधान अलग-अलग है. श्रद्धालु एक दिन, तीन दिन, सात दिन, पंद्रह दिन और 17 दिन का कर्मकांड करते हैं।
पितृपक्ष में क्या करें और क्या न करें?
गया विष्णु का नगर
गया को विष्णु का नगर माना गया है. यह मोक्ष की भूमि कहलाती है. विष्णु पुराण और वायु पुराण में भी इसकी चर्चा की गई है. विष्णु पुराण के मुताबिक, गया में पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है और वे स्वर्ग में वास करते हैं. माना जाता है कि स्वयं विष्णु यहां पितृ देवता के रूप में विद्यमान है।
किस समय करना चाहिए श्राद्ध व पिण्डदान?
जब सूर्य की छाया पैरों पर पड़ने लगे। यानी दोपहर के बाद ही श्राद्ध करना चाहिए। सुबह-सुबह या 12 बजे से पहले किया गया श्राद्ध पितरों तक नहीं पहुंचता है। तैत्रीय संहिता के अनुसार पूर्वजों की पूजा हमेशा, दाएं कंधे में जनेऊ डालकर और दक्षिण दिशा की तरफ मुंह करके ही करनी चाहिए। माना जाता है कि सृष्टि की शुरुआत में दिशाएं देवताओं, मनुष्यों और रुद्रों में बंट गई थीं, इसमें दक्षिण दिशा पितरों के हिस्से में आई थी।
पिंडदान विधि
दक्षिणाभिमुख होकर, आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय के दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है. जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलकार उस जल से विधिपूर्वक तर्पण किया जाता. मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते हैं। इसके बाद श्राद्ध के बाद ब्राह्मण को भोजन कराकर यथाशक्ति दान दिया जाता है।