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सबसे बड़ा अफसोस! अब गाँव-गाँव नहीं रहे

By Prabhat Jha
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Village
गाँव के मायने बदल गए, गाँव अब गाँव नही रहे, सिथतियां बदल गर्इ, गाँव खाली हो गए, कुछ घरों में बच्चे और गाँव में अबला, असहाय वृद्धों को छोड़ नौजवानों की टीम तो खो सी गर्इ है। गाँव में युवाओं के दर्षन दुर्लभ हैं। आंखों ने जो गाँव देखा था अब वैसे गाँवों का मिलना कठिन सा हो गया। अभी गाँव तो हैं पर आत्मा को लोगों ने मार दिया। शहरों की चकाचौंध की चपेट में गाँव आ गए। लोगों की मन में यह बात आने लगी कि वे दोयम दर्जे के नागरिक हैं। समाज में उनका स्थान शहरियों जैसा नही है। शहर यानि उन्नत और प्रगतिशील लोग-गाँव यानि गवार लोग।

यह भावना धीरे-धीरे गाँव -गाँव में फैलने सी लगी। पिछले एक दशक में शहरों ने गाँवों पर अतिक्रमण करना शुरू कर दिया। गाँवों को शहर बनाने का चलन कुछ शहरियों ने शुरू कर गया जो घातक केंसर की तरह गाँवों से चिपकता गया। गाँव अपनी मूल प्रकृति से हटता चला गया। गाँव की मूल प्रकृति थी ''पंच परमेश्वर की आत्मा जो गाँवों में बसा करती थी। धीरे-धीरे वह भावना लुप्त होती चली गयी। गाँव संस्कृति थी। ''गाँव एक जीवन दर्शन हुआ करता था।

पनघट पर महिलाएं

''गाँव खेत-खलिहानों से बैल सहित गाय, भैंसों सहित बकरी के मिमियाने से लेकर श‍िकारी कुत्तों की चौकीदारी तक ही सीमित नहीं था। गाँव के पोखर हों या फिर गाँव के कुंए, वे पनघट तक आती महिलाओं के झुंड, उनकी पायलों की संगीतमयी लयबद्ध चालें कानों में मधुर संगीत का काम किया करती थी। हरे-भरे खेत अब मजदूरों के बाहर चले जाने से सूने पड़े हुए हैं। बैलों के गले में बंधी घंटियां अब सुनने को नहीं मिलती है। सींग टकराते बछड़ों को अब खेलते नही देखा जा सकता। पोखर में एक घाट पर पशुओं का स्नान और एक घाट पर ग्रामीणों द्वारा किये जाने वाले स्नान का दृश्य अब कहां देखने को मिलेगा।

सुबह-सुबह सीताराम-सीताराम

सुबह-सुबह 'सीताराम-सीताराम, ''राधे-राधे जैसी बोली सुनने को कहां मिलेगी। ये बोलियां गाँव की आवाज हुआ करती थी। घर के वृद्ध जिन्हे अरुणोदय के बाद चाय पानी पीने की इच्छा होती थी तो वे सिर्फ भगवान का नाम ले लेते थे। घर की महिलाऐं स्वत: यह बात समझ जाती थीं कि ''ससुर साहब को चाय चाहिए। बुजुर्ग घर में घड़ी के अलार्म की तरह प्रयोग में लाये जाते थे। बुजुर्गों से अनेक बाते सीखनें को मिलती थी। बुजुर्गें की सेवा कौन करता है यह विषय गाँवों में चर्चा बन जाया करती थी।

गांव में गोधूली बेला

प्रात: कालीन बेला में घर के सामने अलाव लोगों के एकत्रीकरण का सहज ही कारण हुआ करता था। किसी को कोर्इ निमंत्रण नहीं, पर अलाव रात को लगे या प्रात: ठंड के महिने में ग्रामीणों का आना सुनिश्चि‍त ही था। उस दौरान ग्राम पंचायत में घटित होने वाली छोटी-बड़ी घटनाऐं भी चर्चा का विषय हुआ करती थी। बिना किसी रेडियो और दूरदर्शन के गाँव-गाँव की खबरों की जानकारी स्वत: मिल जाया करती थी। गाँवों में सूर्योदय पूर्व चरवाहों द्वारा जानवरों को चराने ले जाना फिर शाम को गोधूली बेला में उन्हे लौटाकर उनके खूंटे तक पहुंचाने का काम भी महत्वपूर्ण हुआ करता था।

नाचते हुए मोर

गाँव की रौनक नाचते हुए मोर, एक डाल से दूसरी डाल पर फुदकते हुए बंदर, भौंकते हुए कुत्ते, रम्भाती हुर्इ गायें, ढेंचू-ढेंचू करते गधे। सुबह के समय में दूध देती गाय और भैंसों के दर्शन को लोग शुभ मानते थे। घर से निकले और पनघट से आती सिर पर घड़ा लिए महिलाओं को या नेवले को एक दूसरे सिरे पर भागते हुए देखना शुभ माना जाता था। लोहार, कुम्हार, सुनारा के मोहल्लों की चमक देखते ही बनती थी। एक नार्इ का परिवार ही पूरे गाँव को बांधकर रखता था। हर शुभकार्य का साक्षी गाँव का नार्इ हुआ करता था।

वैध काका का घर

गाँव के वैध, नाड़ी विषेज्ञ, भूत-पिशाच भगाने वाले भगत को लोग काका कहकर पुकारते थे। इनकी अपनी पहचान हुआ करती थी। एक घर का दु:ख देखते ही देखते धीरे-धीरे सारे गाँव का दु:ख हो जाता था। चौपालों पर चर्चाऐं शुरू हो जाती थी। गाँव घर के देवताओं को भी जगाया जाता था। ग्राम देवता, कुलदेवताओं की पूजा भी तत्काल शुरू हो जाती थी। गाँव भार्इचारे का पर्याय हुआ करता था। गाँव की खटिया, गाँव की तखत, गाँव की वो हाथ की बनी गुदड़ी, हर घर की पहचान हुआ करती थी।

आम और अमरूद

गाँव की जागती तस्वीर आज भी आंखों से गुजरती है तो बचपन की यादें सहज आने लगती है। आम का पेड़, लताम (अमरुद) का पेड़, जामुन का पेड़ या बेर का पेड़ किसी का भी हो पर उसके फल खाने का अधिकार हर गाँव वासी को सहज प्राप्त था। सिर्फ शर्त थी कि पेड़ को नुकसान न हो। स्कूल जाते और स्कूल से आते बच्चों के हाथ में डंडा और उस डंडे से फूल तोड़ने का रियाज़ नित्य मजबूत ही होता था। बच्चों में लोग भगवान का स्वरूप देखते थे।

काका-काकी, ताऊ-ताई

गाँव के काका-काकी, तार्इ-ताऊ, चाचा-चाची, सभी एक ही आंगन में रहते थे, एक जगह बड़े-बड़े बर्तनों में एक साथ सभी का भोजन बनता था। अपने-अपने नियत समय पर आकर घर में लोग भोजन पा लेते थे। गाँव में ही मुंडन संस्कार, उपनयन संस्कार, विवाह का आयोजन निजी होते हुए भी पूरा समाज खड़ा हो जाता था। बारात की अगवानी गाँव किया करता था और बेटी की विदार्इ भी करते समय गाँव की बेटियां और महिलाएं अपना कर्तव्य निर्वाह करती थीं। हर घर से एक घूंट पानी तो उस बिटिया को चुप कराते समय सभी पिलाते थे। गाँव से बेटी एक के घर से जाती थी, पर रोता समूचा गाँव था। यह परंपरा थी जो अक्सर गाँवों में देखने को मिलती थी।

ढोल नगाड़े

ढोल बजाने वाले, पिपही बजाने वाले खुशी-खुशी आते थे कि आज मालिक के घर कार्यक्रम है। घर में इनके साथ घरोपा संबंध हो जाया करते थे। प्रात: से लेकर रात्रि तक सोने से पहले तक घर का सेवक सपरिवार अपने घर की तरह काम में लगे रहते थे। बात एक तरफ से नही होती थी। सेवक जिसे मालिक मानता था वह मालिक भी सप्ताह या माह में एक बार अपने सेवक के घर पहुंच जाता था और घर पहुंच कर उसके दु:ख दर्द को समझ लेता था। सिथति ऐसी होती थी कि सेवक की बेटी घर में बड़ी होती थी और चिंता मालिक को होने लगती थी।

गांव के संस्कार

गाँव का यह संस्कार न जाने अब कहां चला गया। मालिक सहज सेवक से कहा करते थे कि अब एक लड़का भी तो ढूंढना पड़ेगा। इतनी सी बात परिवार भाव का संबंध स्वयं उजागर हो जाता था। सेवक की बेटी का बाली उम्र ओर मालिक के सिर पर सिलवटें आना, ये दायित्वों का बोध ही माना जाता था। गाँव में परिवार की तरह लोग सेवक को रखते थे। सेवा करने वाला सेवक। सेवक को नौकर की तरह नही देखा जाता था। परिवार का अंग ही होता था।

चौपाल में चर्चा

गाँव चौपालों पर पूरे घर की चर्चा होती थी। चौपाल पर गाँव का वह उम्रदराज जो सबसे बड़ी उम्र के होते थे, वे बैठा करते थे। गाँव घर की खबरें स्वत: वहां आ जाया करती थी। चौपाल की अपनी हैसियत हुआ करती थी। 'चौपाल पर जो बातें पहुंचती उन पर उस चौपाल पर गहन चर्चा भी होती थी। आखिर में यदि कोर्इ अंतिम वाक्य होता था, तो वह उस बुजुर्ग का जो उस चौपाल की शोभा हुआ करते थे। चौपाल पर जो अंतिम वाक्य होता था, उसे बदलने ही हिम्मत सामान्य लोगों में नहीं होती थी।

चौपाल में अखबार

चौपालों पर अखबारों में आयी खबरों के साथ-साथ, आस-पास की राजनीति की भी चर्चाऐं हुआ करती थी। चौपाल पर कभी-कभी चुने हुए प्रतिनिधि भी आते थे और उन्हे पंचायत की व्यथा-कथा से अवगत कराया जाता था। चौपाल को लोग गाँव का पार्लियामेंट कहते थे। गाँव या पंचायत में कभी पुलिस नहीं आती थी। गंभीर से गंभीर मसलों पर चर्चा के बाद रास्ता स्वयं निकल आता था। गाँव में पुलिस का आना पंच-परमेश्वर रूपी पंचायत और गाँव के चौपाल की मर्यादा दांव पर लग गर्इ ऐसा माना जाता था। मुखिया कोर्इ भी हो पर वह भी चौपाल से बाहर नहीं जा सकता था। चौपाल की गरिमा का ख्याल सभी ग्रामवासी रखते थे। चौपाल पर गाँव के हर बात का हिसाब होता था। बात छोटी हो या बड़ी चर्चाओं से ही परिणाम और समाधान निकलता था।

समाप्त हो रही गंव की ऊर्जा

गाँव में नए-नए प्रयोग भी हुआ करते थे। गाँव की अपनी ज्येष्ठता भी हुआ करती थी। उसके साथ खिलवाड़ करने का अधिकार किसी को नही था सिथति आज भयावह हो गर्इ है गाँव है पर ग्रामीण नहीं हैं। रुग्ण और वृद्धों से जुड़े गाँव बचे हैं। गाँव की उर्जा समाप्त होती चली गर्इ है। ऊर्जाहीन गाँव का अपना क्या आसितत्व होता है। गाँव पहले मजबूती हुआ करता था अब मजबूरी हो चला है।

गाँव के प्रति लगाव हर एक को होना चाहिए पर ऐसा कठिन सा हो गया है। गाँव का यह बदलता स्वरूप खतरनाक मोड़ लेगा। खेती गाँव का मुख्य आधार है किसान गाँव की शान हुआ करते हैं किसान मजदूरों पर पूरी खेती अवलंबित रहती है। मजदूरों का पलायन भी गाँव के लिए चिंता का विषय है। आज गाँवों में मजदूरों का मिलना मुषिकल हो गया है। मजदूरों को आठ घंटों का महनताना शहरों में अधिक मिलता है। शहरों का चस्का भी मजदूरों को धीरे-धीरे लगता गया। गाँव के लोग शहरों में बदतर सिथति रहना पसंद करते हैं पर वे गाँव की सम्मानजनक जिंदगी पसंद नही कर रहे हैं।

भयावह होती स्थि‍ति

गाँव लौटते लोग धीरे-धीरे गाँव में शहरों की सुविधा की तलाश करने लगते हैं स्थि‍ति इतनी भयावह है कि गाँव से कुटीर उधोगों को चलाने वाले सुनार, कुम्हार और लोहार गाँव -गाँव छोड़कर जाने लगे हैं। गाँव की ओर नजर दौड़ाते हैं तो सार्इकिल या मोटर सार्इकिल पर सवार आर.एम.पी. डाक्टर जिनका गाँव में एमबीबीएस से भी अधिक मान रहता है को घूमते हुए देखा जा सकता है। गाँव की सड़के, गाँव के चौराहे, गाँव का वह हाट जहां गाँव को देखा जा सकता था पूरी तरह सूने हो गये हैं। खेती का कमजोर होना यानि भारत की रीढ़ की हड्डी का टूटना ही कहा जाएगा।

कर्तव्य की बात

गाँवों को बचाना राष्ट्रीय कर्तव्य सा हो गया है। हम सभी को अपने-अपने स्तर से गाँव , गरीब और गाँव की चौपालों की मर्यादा बचाने के लिए आवष्यक कदम उठाने पड़ेगें। साठ लाख गाँव नही बचेगें तो देष कैसे बचेगा? देष को बचाना है तो गाँवों को बचाना ही पड़ेगा। शहरों की तुलना में गाँव की ओर भारत सरकार और राज्य सरकारों को अत्यधिक ध्यान देना चाहिए। गाँव का विकास ही भारत के विकास का रास्ता तय करेगा। 'गाँव यदि जीवित रहे तो हमारी संस्कृति और परंपराएँ जीवित रहेगी। इस दिशा में सरकारें जो भी हों पर हम सभी की अपने-अपने स्तर पर भी पहल प्रारंभ करना ही होगा। काष! हम सभी ऐसा कर सकें तो देश के लिए बहुत बड़ा कार्य होगा।

Comments
English summary
Village culture in India is getting ruined. This is very bad and could be environmental as well as social drawback for the country.
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