कविता: है बजा चुनाव का बिगुल आया वक्त देश बचाने का
अन्याय और अनीति के खातिर घमसान मचाने का
कुछ चिकनी चुपड़ी बातें करते दर दर नेता भटक रहे
'चेतन' करें काज सच्चाई जन जन तक पहुंचाने का
वो
लोक
लुभाने
वादे
करके
इस
सत्ता
में
आ
जाते
हैं
वो
दो
चार
दिवस
बाँटकर
नकदी
कुर्सी
फिर
पा
जाते
हैं
क्या
करें
राष्ट्र
की
सेवा
वो
जिनने
खैरात
लुटायी
हो
वो
अपना
धनधान्य
बढाने
में
ही
पांच
साल
खा
जाते
हैं
वो
वादे
पर
वादे
करते
हैं
नित
ऊंचे
ख़्वाब
दिखाते
हैं
जहां
नहीं
गए
कई
वर्षों
से
उन
गलियों
में
भी
आते
हैं
मजलूमों
की
देख
दुर्दशा
घडियाली
अश्रु
वहां
बहाते
हैं
दिल
में
जगह
बनाने
को
सूखी
रोटी
तक
खा
जाते
हैं
कोई
बालक
दिखा
गरीब
का
झट
उसको
गले
लगाते
हैं
बेबस
और
असहाय
से
गजब
सहानभूति
दिखलाते
हैं
हर
पांच
साल
के
बाद
ये
उनसे
रिश्ते
नये
बनाते
हैं
अब
ये
अम्मा
चाचा
ताऊ
कहते
गली-गली
लहराते
हैं
इनके
बहकावे
में
आकर
सत्ता
के
विषधर
मत
बोना
ये
आया
है
वक्त
आज
फिर
पांच
वर्ष
को
मत
खोना
इस
चन्द
चुनावी
नकदी
से
नहीं
उम्र
पार
हो
जायेगी
बगुलों
के
संग
संग
चलकर
तुम
हंसों
को
मत
खोना
मैं
तो
समाज
का
सेवक
हूँ
कुर्सी
से
मुझको
प्यार
नहीं
न
झूंठे
स्वप्न
दिखाता
हूँ
व
कुछ
देने
को
उपहार
नहीं
जो
भी
करना
हो
तुमको
अपने
विवेक
से
तुम
करना
याद
रहे
है
प्रश्न
राष्ट्र
का
इसमें
करना
व्यापार
नहीं
मैं तो समाज का सेवक हूँ कुर्सी से मुझको प्यार नहीं